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पृष्ठ:रसकलस.djvu/४७९

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सकलस २३२ है कालिदी - तट वहै वहै कदव रसाल । आज कहा तोको भयो इत आवत ही बाल ।।२॥ वहै कोकिला रव अहै वहै भृग - गुजार । आज बनी क्यों बावरी निरखि बसंत-बहार ||३|| वहै मलय की मंजुता खग - कुल वहै कलोल । भयो जात कत लाड़िली तव चित इतनो लोल ||४|| २--हाव सयोग-समय में स्त्रियों के स्वाभाविक भू-भग-विलासादि को हाव कहते हैं । उदाहरण दोहा- सरसावति काको नहीं रस - निचुरत मुसुकान । तिरछी - चित्तवन कहति है तिय - चित की बतियान ।।१।। रस राखन मैं नहिं रखति नेक कसर दृग - कोर । पिय - मन की कहि जाति है तिय की भौंह-मरोर ।।२।। ३-हेला सयोग-समय में विविध-विलास-भावो के प्रकटित होने का नाम हेला है। उदाहरण दोहा-- गुलचा दै तिरछे चितै हग नचाइ मुख मोरि । बाल भुरावति लाल को विहँसी भौंह मरोरि ॥१॥ की करति हॉसी कबौं छीनि लेति उर - माल । क्वौं छाछ - वाली कहति अहै 'छिछोरो लाल।।२।। .