पृष्ठ:रसकलस.djvu/५०३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रसकलस लखि कै या कपूत-कला-निधि को सिगरो कल आपनो खोवती हैं। नभ के इन तारन की अवली निज नैन के तारन पोवती हैं। 'हरिऔध' न ऑख लगै कबहूँ दुख सों पल हूँ नहिं सोवती हैं। पतिया पढ़ि के सिगरी रतिया पकरे छतिया हम रोवती हैं ॥३।। दोहा-- जिय तरसत पिय मिलन को पावत पलौ न चैन । पूस मास पावस भयो दृग बरसत दिन रैन ।।४।। विवस भई बनि बावरी कैसे दिवस सिराहिँ । छरछराति छाती रहति पाती आवति नाहि ॥ ५॥ भविष्य प्रवास जिस प्रवास का सबघ भविष्य काल से होता है, उसे भविष्य प्रवास कहते हैं। उदाहरण दोहा-- लखत विदेस पयान को होत तिगूनो तंत। मानत कंत कही नहीं प्रावत सरस- बसत ॥ १ ॥ जाह विदेस, इतो कहहु, तव जी, केहि जोहि । कहि पी कहाँ पपीहरा जब कलपैहै मोहि ।।२।। छकी गमन सुनि छैल को वनी छवीली मूक । छटपटाति छिति पर परी छाती भई छटक ।। ३ ।। वरवा- प्रीतम जात विदेसों निपट अनेस । सिसकत खरी तरुनिया वगरे केस ॥४॥