पृष्ठ:रसकलस.djvu/५०८

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२६१ रस निरूपण 'हरिऔध' सोई मोहिं धीरज बॅधावै क्यो न धीर जो अधोरन बिलोकि ना धरत है। दयानिधि क्यों न दयानिधिता दिखावत है करुना क्यों करुना-निधान ना करत है ।।१।। ऑखिन को तारो क्यों हमारो है परारो होत उर को हरन-हारो कत होत कोही है। असरस होत क्यों सरस-आदरस - वारो क्यों न देत दरस मयंक-मुख-जोही है। 'हरिऔध' विरह-पयोधि परी ऊबति हौं क्यो न वॉह गहत सु-बाट को वटोही है। जनम को छोही काहें परम अछोही भयो मोहन सों मोही काहे भयो निरमोही है ॥२॥ सवैया- कामुकता-कमनीय-निकेतन कामिनी की अखियान को तारो। सूधो सधो सुख-धाम सुधा-सनो सुंदर-सील-सनेह-सहारो। भाव-भरो सुथरो भव - बल्लभ जीवन - जीवन - भूतल - प्यारो। मोहि न कोऊ मही-तल मैं मिल्यो मोहन लौ मन-मोहन वारो ॥३॥ साँवरे अगन सी सुकुमारता सॉवरे-अंगन मैं निवसी है। मंजुल-आनन - सी कमनीयता मंजुल - आनन मॉहि लसी है। ए'हरिऔध' है हग से हग मंजु - हॅसी सम मंजु-हॅसी है। मोहन - वैनन सी मधु-मानता मोहन वैनन ही मैं बसी है ॥४॥ दोहा--- गिरत उठत थहरत उड़त थिरकत होत उतंग । तऊ न तव - गुन - गुन तजत मो - मन अगुन-पतंग ॥ ५ ॥