पृष्ठ:रसकलस.djvu/५०९

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रसकलस २६२ . १ रही अवधि की अवधि नहिं सुधि हूँ की सुधि नाँ हिं। तिय, पी, सुगुन-सरस-सुधा सरसति बसुधा माहि ॥६॥ ५-उद्वेग प्रिय-वियोग से व्याकुल होकर किसा विषय में चित्त न लगने का नाम उद्वेग है। उदाहरण कवित्त-- गात पियरात तो न हियरो हिरानो जात चिंता तो विवेक-हीन-बेदना न जनती । सूखतो न अधर उसास ते न ऊब होति रार तो न पास औ निरास माँहि ठनती । 'हरिऔध' विधि को बिधान तो बेधि देत तो न प्रेम मंजुता अमंजुता मैं सनती । वायु-चिर-सगिनी बिहंगिनी सी बेगवान योगिनी बियोग मैं बियोगिनी जो बनती ॥१॥ सवैया-- राति सिराति तो वार न वीतत बात वियोग की काहि वतैये । जोहत पंथ थके युग लोचन क्यो दुख-मोचन को लखि पैये । बेसुध हौं 'हरिश्रोध' विना भई को लौं बिथान कथान सुनये । का करिये सखि सगम की विधि वायु विहगम क्यों बनि जैये ॥२॥ दोहा- ऊबति बीते अवधि दिन कोमल-तन-कुभिलात । तितनो आकुल होति तिय जितनो चित अकुलात ॥३॥ सुन पिय-आगम प्रात ही युग सम बीतत । राति । परलहि परी वनन चहति सेज-परी अकुलाति ॥ ४॥