पृष्ठ:रसकलस.djvu/५१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२६३ रस निरूपण ६-प्रलाप प्रिय की अनुपस्थिति में उसे उपस्थित मानकर अथवा वियोग से विशेष व्यथित होकर अनर्गल किंवा निरर्थक वार्तालाप को प्रलाप कहते हैं। उदाहरण ऋवित्त- कूकन न दै री कुंज-पुंज मैं पिकन कॉहि आवन सदन मैं न मंजुल-वयारि दै। तोरि दै सकल तरु-बृद के नवल-दल लोहू लाल-सेमल-प्रसूनन को गारि दे। 'हरिऔध' बिरह-वेहाल-मन मेरो अहै एरी वीर अलि की अवलि कौ बिडारि दै। कलित - कमल - कुल - कोमलता - काल बनि ललित-लतान की ललामता निवारि दै॥१॥ रसना पुनीत-गुन गाई गौरवित होति रुचि चारु-चरित विचारि विकसति है। सुमिरि सुमिरि मंजु-भाव मन मोहि जात उर मैं प्रभावित-प्रतीति प्रविसति है। 'हरिऔध' प्रीतम-बिदेसी है बिदेसी कहाँ रोम रोम मॉर्हि पूत-प्रीति विलसति है। वैनन मैं वसति विदित-बिरुदावलि है नैनन मैं सूरति-सलोनी निवसति है।॥ २ ॥ सवैया- मानिहौं नातो न बारिधि-बंस को वारिधिता को कबौं ना सकैहौं । ना कमला कमलापन सोचिहौं ना कमला-पति को पतिदेहौं।