पृष्ठ:रसकलस.djvu/५१७

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रसकलस . सपैया- काल कराल करालता मैं परि छाती छितीसन हूँ की छिली है। रह नहीं अमराधिप से अमरावति हूँ कवौं जाति मिली है। ए 'हरिऔध' दली जो गई नहिं ऐसी कहाँ कोऊ वेलि खिली है जैहै सुधानिधि हूँ कबहूँ मरि काहि सुधा वसुधा मैं मिलि है ॥३॥ दोहा- अत • समय अनुराग - मय पिय प्रावहिं जो भौन । तो मम - जीवन - सम सफल जीवन है जग कौन ॥ ४॥ मग जोहत लोचन थके अब रहि जात न मौन । जिअत मिलहु जो मिलि सकहु मुये मिलत है कौन ॥ ५ ॥ तुम आये नहि देह तजि पौन करत है गौन । मम - प्यासी अखियान को प्यास बुझहै कौन ।। ६॥ जिअन लालसा है नहीं सुनहु रसिक - सिर - मौर । अधर - सुधारस - लालची चाहत सुधा न और ॥ ७ ॥ चहत मानियहु मेरी इतनी बात। मम - तन - रज पै पिय कबहुँ रखियह पग-जल जात ।।८।। मरत पै