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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५२७

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रसकलस २८० फूल ||४|| जो जानत जन तोरि, लखि सुखमा - सुखमूल । तो काहे को फूलतो कबहूँ कोऊ कहा मनोहरता मिले पाये सरस - सुबास । मधुप न मोहत तो कहा सुंदर - सुमन - विकास ॥५॥ बेचारे विहंग दोहा- बसत बिपिन मैं खात फल पिअत सरित - सर - नीर । तिन बिहगन कहें बेधहीं मारि वधिक - गन तीर ।।१।। काहे बिधि सुदर कियो दियो सुहावन - रग। वधिक - वान वेधत रहत जो बिहग को अग ।।२।। तीखे वानन ते बिधत कुसुम - मनोहर - अग। चित्रित लै का करें ए बापुरे बिहग ॥३॥ वसुधा मैं वेधत बधिक गहत गगन मै बाज । कहाँ जाय बिहरै बसै वेवस विहग - समाज ||४|| अंतर्वेद पर दोहा- जाते आलोकित वर्ने तिमिर - भरे सब ओक । कबहूँ फिर अवलोकिहै भारत वह आलोक ॥१॥ गई ऑखि हूँ जाहि लहि जोहन - वारी होति । कहा कवौँ फिर जागिहै जाति माँहि सोइ जोति ARII जाते वहु - विकसित वनत जनजन, पूजे श्रास । का कबहूँ हैहे न फिर वैसो सरस · विकास ॥३॥