पृष्ठ:रसकलस.djvu/५४३

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रसकलस २६८ लाल सब लोच-वारे-लोचन के लालची हैं कामुक - सकल काम - कामिनी के चेरे हैं ॥२॥ छबि के निकेतन हैं छबि के सहारे बने तन मैं नवलता लसावति नवेली है। मोहकता मिली जोहि जोहि मोहनी को मुख गौरव गहाइ देत गरब - गहेली है। 'हरिऔध' नरता की नारिता सजीवन है नारि के सनेह ही ते साहिबी सहेली है। अलबेले याहि ते रहत अलबेले बने अलवेलेपन मैं बसति अलबेली है।।३।। भामिनी के प्रोप-वारे भाल के बिमल भाव तम • वारे मानस के मंजुल - अजोर हैं। घन-रुचि-रुचिर चिकुरवारी-कामिनी के कामुक - निकर - कमनीय - तन - मोर हैं। 'हरिऔध' सकल - सरस - चित चाव-साथ सरसा के कलित - रसों मैं सराबोर हैं। चखन की कोर चितचोर की है चितचोर चद-मुख-वारे, चद - मुखी के चकोर हैं ॥४॥ सबैया- वंदी ललाम न कैहै लिलार को जो न वनी रहिहै मुख-लाली । जो है विलासिता की जननी तो न कानन मॉहि बिराजि है बाली । वाजिहै ना पग - नू पुर हूँ यदि मानवता वनि है मतवाली । दूखित ह है विभूखन ते तो विभूखित ह है न भूखन-वाली ||५||