पृष्ठ:रसकलस.djvu/५४४

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२६६ रस निरूपण अधजल गगरी कवित्त-- वालपन हो ते जो न वानरता वादि देति लोग क्या न तारी दै दै वानर तो कहते । दूर जो न करति बिपुल पसु की सी वानि कैसे तो न पसुता - तरग ही मैं वहते । 'हरिऔध' गहते न गैल मनुजातन की बहके गरूर - वारे गौरव न लहते । नारी को परखि कौन हरति अनारीपन नारी जो न होति तो अनारी नर रहते ॥१॥ सच्चे जाति-हितैषी सवैया- हैं जनता को जगावत जागि कै पै नहीं जागि सकी मति सूती। हैं अवनीतल के उपकारक छोह नहीं कुल - प्रीति है छूती । जाति रसातल जाति चली पै कहावत हैं जग मैं करतूती । सारत काज सपूत समान हैं काहै सपूत की और सपूती ? ॥१॥ 'वा' नरता को करेजो निकारिहौं नारिता की जर जो खनती है। 'वा' विधी के उर हूँ को बिदारिहौ जो विधि-बामता मैं सनती है। ए 'हरिऔध' कयौं नहि मानिहाँ 'छूटी न' गाढ़ी अजौ छनती है। तो सधवा करिहौं विधवान को जो सधवा, विधवा वनती है ।।२।। नेता संवेया- जाति मैं वोअत आगि रहैं कुल मैं हैं विरोध की आग जगावत । आग लगाइ के दूर खरे रहि व्योंत बुझावन के हैं वतावत ।