पृष्ठ:रसकलस.djvu/५७०

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३२१ रस निरूपण युद्धवीर शत्रु का प्रताप, पौरुष और ऐश्वर्य आदि आलवन, मारू वाद्य और सैन्य कोलाहल आदि उद्दीपन, अग-स्फुरण और नेत्र - लालिमा आदि अनुभाव, गर्व, उग्रता और धृति आदि सचारी भाव हैं। युद्ध वीर में बल, पौरुष प्रतापादिजनित उत्साह की पुष्टि है। कवित्त-- धूरि मैं समैहैं गोले, ओले के समान गिरि टूक टूक हहै तोप वार वार दनकी । घोर घमासान वीरता की धूमधाम है है धीरता रही जो वनी धीरन के मन की। 'हरिऔध' विरद निबाहत विरदवारो बात अविदित है न वात - भरे तन की। वर - बीर छिति मॉहि छोरत अछूतो जस सुधि हूँ न लेत छिदी छाती के छतन की ।।१।। पीछे ना परैगो कबौं परम - उमंग भरो रण - रंग - रॅगो दंग करिकै पधारंगो। बार वार धूऑधार कठिन समर करि कीरति अपार या धरा पर पसारैगो । 'हरिऔध' वैरिन को उदर विदारि दैहै लात मारि मारि ऑत अरि की निकारगो। , जाको करतूत मैं लगी ना छूत एकौ बार राजपूत पूत भूत सिर को उतारैगो ॥२॥ उठो उठो वीरो चीरो अरिन - करेजन को पीरो मुख परे बनी बात हूँ विगरिहै ।