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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५७१

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रसकलस २२२ छटकि छटकि छाती छगुनी करयन को कौन आज उछरि उछरि कै कचरिहै। 'हरिऔध' कहै बीर-बृद ना अवेर करौ हॉक ते तिहारी धीर हूँ ना धीर धरिहै । पारावार - धार मैं उड़ेगी छार ऑच लगे ठोकर की मार ते पहार गिरि परिहै ।।३।। ! बहके बहॅकि सारी बहक निवारि देहौं बाल बाल बीनिहीं बलकि बने बलवान । तमके तमकि तम हरिहौं तमारि सम दात पीसिहैं तो दॉत तोरिहौं मरदि मान । 'हरिऔध' बैरिन की बीरता बिफल कहों बादिन पै वदिकै बगारिहौं बिखीले बान । मुंह जो बनैहैं तो पकरि मुंह तोरि दैहौं ऑखिजो दिखेंहैं तो निकारिलहौं अखियान ।। ४ ।। बिदित पुरारि - बन्न बज्रता बिलोप कैहै बिकराल - काल की करालता को खलिहै। चक्री के प्रवल - चक्र कॉहि चूर चूर के है कालिका - कृपान की कृपानता को छलिहै । 'हरिऔध' कोऊ रन - बाँकुरो उमग भरि वक करि भौंहैं सत्रु सौंहैं जब चलिहै । खंड खड करिहै पिनाकी के पिनाक कॉहि ठोकि भुज - दड यम - दंड हूँ को दलि है ॥ ५ ॥ वीर - कुल-वाल है न सहिहौं त्रिकाल मॉहि लोक-प्रतिकूल की अकल्पित-कुचाली को।