सकलस ३२४ अंग-भंग-निपुन तरंगित तरंगिनी सी भरित - उमग रन - रंग - मतवाली है। 'हरिऔध' वैरि-उर-विवर-बिहारिनी है काल को कराल रसना सी कपवाली है। लहू-लाली-भरी के कपाल-माली-आली अहै बीर-करवाल काल - व्याली किधौं काली है।। पग जो न दैहैं साथ पंगु तो बनहौं तिर्ने कर जो न कहैं कही लुंचता सकारिहौं । बार बार ताको छत बिछत बनहीं छेदि जाति-दुख-छत जो न छाती मैं निहारिहौं । 'हरिऔध' जाति-हित जीहौं जाति-हित कहाँ प्रतिकूल भये रोम रोम मैं उखारिहौं । विमुख बनगो तो न मुख रहि जैहै मुख रस जो न राखिहै तो रसना निकारिहौं ॥१०॥ कचन बिहाइ कॉच पै जो मोहि जैहै मन तो मैं ताको मानवी विमोह सब हरिहौं । वासना सते है तो बसैहै नाँहि बासना की विचलित चाव ते बचाव के उबरिहौं । 'हरिऔध' जाति पीसि पेट पालिहौं ना कबौं ऑखि जो फिरी तो आँखि-मॉहि धूर भरिहौं । चूक पर चूक जो निवोरी हित होति जाति रसना निगोरी को तो एक टूक करिहौं ॥११।। एक वृंद रुधिर रहैगो जो लौं गात मॉहिं देस-अनुराग-ताग तब लौं न तोरिहौं ।
पृष्ठ:रसकलस.djvu/५७३
दिखावट