पृष्ठ:रसकलस.djvu/५७४

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३२५ रस निरूपण अपनी विभूति को बचैहौं वाल वाल बिने खाल के खिचे हूँ रक्त अरि को निचोरिहौं । 'हरिऔध' पैही दिव्य हार हारहूँ के भये वजर परे हूँ सिद्धि छूटी गॉठ जोरिहौ । छाती के छिले हूँ मोरिहौ ना छमता ते मुख रोम रोम छिदे जाति-ममता न छोरिहौं ॥१२॥ फुकरत देखि फनि-पति को न भीत होत देव सेनापति की दुरंतता दरत है। दबत न देखि भूरि भैरवता भैरव की संयमिनी - नाथ दंड - पानिता हरत है। 'हरिऔध' मानत धरा-पति को धाक नॉहिं सौंहैं परे नाक-पति हूँ को निदरत है । करवाल गहे ना डरत लोक - पाल हूँ ते वीर - बर विकराल काल ते लरत है ।।१३।। करिकै समर धूऑधार धीर बीर नर बार बार अरि को पछारि, है उछरतो। काटत फिरत गज-बाजि की कतार कॉहिं पोर भीर - भार मै सँभारि, है उभरतो । 'हरिऔध' तार वॉधि बॉधि तीखे तीरन को भीरु-भावना मैं, है भभर-भूरि-भरतो । हनित कटार पार होत है करेजन के वार पर वार तरवार की है करतो ॥१४|| बड़े-बड़े वीरन को पकरि पछारि देत भारी - भारी - भीरन हनत पल - भर मैं । 1