पृष्ठ:रसकलस.djvu/५७९

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रसकलस पूत-बेरो है। - दीन-दुख दुसह-दवारि बर-बारिद, है दारिद-अपार-पारावार भवन है बिपुल-उदार-उर-भावन को चारु-भूत-चावन को रुचि-कर-खेरो है। 'हरिऔध' पर-हितकारिता-बिकास-भूमि लोक-उपकारिता को लसित-बसेरो-है। चेरो अहै दया-मान-विगलित-मानस को तेरो दान दया - मंजु - आनन - उजेरो है ॥ ३ ॥ अविभव माँहि है बिराजत बिभव बनि भाव ह के बिपुल अभाव में बसत है । रस है अरस मैं बिभा है बिभा-हीनन मैं सुख है के असुखीन मॉहि निवसत है। 'हरिऔध' भोजन है भूखे की हरत भूख नीर ह पिपासित-गरे मैं प्रविसत है। दीनता निवारि, के अदीन सब दीनन को दिन दिन दानिन को दान बिलसत है ।। ४ ।। सींचन को बंस-विरदावलि-दलित-बेलि गात को रुधिर बारि-धारा लौ बहैहाँ मैं । तन बेंचि बेंचि रोम रोम ते निबाहि पन वंचित-समाज-बंदनीयता बचैहौं 'हरिऔध' धन-वारि बधन-निवारि पैहौं सिर दै दै सॉची-देस-बंधुता दिखहौं मैं । जीवन-विहीन को सजीवन बनहीं जूमि जाति-हित जीवन हूँ दान करि देहों मैं ॥ ५ ॥