पृष्ठ:रसकलस.djvu/५८०

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रस निरूपण तेरो पद ऊँचो पद ऊँची पदवीन को है दारिद-दुरित को दरन तेरो दर है। तेरो प्यार दाता है अपार-अधिकारन को विपुल-विभूति को विधाता तेरो वर 'हरिऔध' तौ मन मृदुलता-निकेतन है तेरो उर अतुल उदारता को घर है। फलद् दयालुता तिहारी कल्प-चेलि-सी है कामधेनु - कामद - कामद तिहारो कांत-कर है॥६॥ तो सों कौन दूसरो द्रवत पर-दुख देखि तोसों कौन दानी को दयालुता-निकेत है। याचकन कॉहि कौन करत अयाचक है कंचन बरसि जात कौन चित-चेत है। 'हरिऔध' रंकन को करत कुवेर कौन सकल अकिचन की कौन सुधि लेत है। काने सनमाने दीन-जन जानि दीनन को जाने अनजाने को खजाने खोलि देत है ॥७॥ धन, जन, असन, बसन, वासनन देइ दानवीर दीनन की दीनता दरत है। हीर-हार मंजु-मनि-मोतिन की माल देत भूर-भव-विभव भवन मैं भरत है। 'हरिऔध' राजी है करत वर-बाजी देइ साजी धेनु-राजि दै अधेनुता हरत है। लावत 'अवार' न वराकत-ज्वारन मैं वार बार वारन-कतार वितरत है।