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पृष्ठ:रसकलस.djvu/५८१

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रसकलस ३३४ दिन दिन रतन-बखेरन की बानी हेरि रतन - समूह - श्राकरन मैं अरो अहै। धरनि मैं धन, भूधरन मैं छिपे हैं नग, मुकुत अगाध-अबुनिधि मैं परो अहै। 'हरिऔध' तेरी दान - बीरता बखान सुने भभरि कुबेर भूरि - भीति ते भरो अहै । कनक - अपार बार बार बितरत देखि सोने को पहार एक कोने में खरो अहै ॥धा घनता तिहारी ही रसालता की अवलोकि घन - माला घूमि घूमि नभ मैं घिरति है। रवि की किरिन विकसित है वसुधरा पै तेरी गुरुता ते गौरवित ह गिरति है। 'हरिऔध' तेरी ही दमक को दमामो दे दे दमकत दामिनी दिगत मैं फिरति है। लहि के तरनि लौ तिलोकतम - हारी तेज तारावलि तेरी दानधारा मैं तिरति है।।१०।। दोहा- जगतीतल मैं कौन है दानी जलद-समान । जो जीवन हित करत है अपनो जीवन दान ॥११॥ बायु सहत, छीजत, दहत, गरत गॅवावत मान । तव हूँ जलधर जगत को करत रहत जल - दान ||१२|| दानी सॉसत हूँ सहे दान देइ जस सहि पाहन वनि वनि विफल सफल विटप फल देत ।।१३।। लेत।