रसकलस ३४४ 'हरिऔध' बिबिध - बिभीषिका थहर भरी सकल - ससंक- भाव गात-भूति है। भभरे जनन की भभर भूत - प्रेम - भीति भीरु - जन - अनुभूति भय की विभूति है ॥ १ ॥ भूत - प्रेत परम - भयावनी कुमूर्ति देखे चैन से कबौं ना भूतहूँ को पूत सूति है। फुकरत फनि • गन फनिता बतैहै कौन कालिका-करालता कहाँ लौं कोऊ कूति है । 'हरिऔध' काहि से गरल - कंठता है छिपी काको ना कपाल-नैन-ज्वाल - अनुभूति है । भैरव समेत भूत - नाथ की प्रभूत - भूति भूरि - भय - भावना भयंकर - बिभूति है ।।२।। कहा अजगुत बक्र - दंत बिकराल - काय कदाकार कोऊ भूरि-भीति उपजैहै जो। कौन है बिचित्रता विकल्पित बिपुल - मूर्ति बनिकै भयंकरी विभीषिका बढ़ेहै जो। 'हरिऔध' कछू ना अचंभौ तम-तोम - तरु भैरव - विभूति है अपार डरपैहै जो। जहाँ तहाँ खरे क्यों दिखहैं ना प्रभूत - भूत भय - अमिभूत - मनभूत बनि जैहै जो ॥ ३ ॥ विभीषिका कवित्त-- सूरता बिलोके साँचे-सूर - कुल - केसरी की बड़े-बड़े - साहसी समर मैं सकाने हैं। - 1 -- L. 1 --
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