पृष्ठ:रसकलस.djvu/९५

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७४ अथवा प्रदर्शन होगा, वह शृगार रस कहला सकेगा। आचार्य भरत के 'नाट्याश्रित' वाक्य से केवल नाटको का ही ग्रहण न होगा, काव्यों और अन्य साहित्यिक विषयो का समावेश भी उसमे समझा जावेगा। कारण यह है कि शृगार रस की परिभाषा उन सब को अंतर्गत कर लेती है। प्राचार्य के सम्मुख नाटक का विपय था, इसलिये अपने सूत्र मे उसीका उल्लेख उन्होंने किया, और इसका कोई दूसरा हेतु नहीं। काव्य दो प्रकार का होता है, दृश्य और श्रञ्य । इसलिये रम- णीयार्थप्रतिपादक' दोनों है, क्योंकि पडितराज कहते है, 'रमणीयार्थ- प्रतिपादकः शब्दः काव्यम् ।' फिर दृश्य काव्य श्रव्य का उपलक्षण क्यो न माना जायगा । साहित्यदर्पणकार कहते हैं कि काम के अकुरित होने को शृग कहते हैं, इसलिये उसकी उत्पत्ति के आधार, उत्तम प्रकृतियो के अवलयन, रस को शृगार कहा जाता है। इस कथन में भी उत्तम प्रकृति का प्राधान्य है। उत्तम प्रकृति ही पवित्र, उज्ज्वल, और दर्शनीय होगी। अतएव शृगार रस की परिभापा के विषय मे हम दोनो चावदूक विद्वानो का एक ही सिद्धात और एक ही विचार अवलोकन करते है जिससे उसकी विशेप पुष्टि होती है श्रृंगार रस को विवेचन शृगार रस के देवता विष्णु भगवान है। नाट्यशास्त्रकार लिखते है, 2 गारा विष्णु देवस्नु' यही सम्मति साहित्यदर्पणकार की भी है, वे कहते है, 'स्थायभावो रति श्यामवर्णीय विष्णुदैवत'। जिस रस का जो गुण, स्वभाव और लक्षण होता है, उसका देवता प्राय उन्ही गुणो और लक्षणादि का श्रादर्श होता है, क्योंकि उसीके आधार मे उस रस की कल्पना होती है । भगवान् विष्णु मे सतोगुण को प्रधानता है, वे सृजन कर्ता के भी सृजनकारी है। उन्हीको नाभि से जो विश्व का केंद्र है, ब्रह्मा की मृष्टि हुई, जो शतदल कमल पर विराजमान थे। यह .