पृष्ठ:रसकलस.djvu/९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शतदल कमल और कुछ नहीं, अनंत जलराशि में प्रकटीभूत जुद्रतम् पार्थिव अंश मात्र था । वे शेपशायी है, प्रयोजन यह कि विनष्टभूत अखिल ब्रह्मा के जो शेपाश सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु स्वरूप में, शून्य में. अन्न अगाध समुद्र के समान वत्तमान रहते है. वे उन्हीमे विश्राम करते हैं। उनकी सहकारिणी वह शक्ति है जो रमा है, जो उनके समान ही सर्वत्र ही रमण करती है, सबका पालन-पोपण करती है, और जो उन्हीं लोकोत्तर के सदश लोकोत्तरा है । वे हिरण्यगर्भ है, 'कोटिसूर्यसमप्रभ है, अर्थात प्रसंन्य दिव लोक, अपरिमित सूर्य मडल, और अनंत-दीप्तिमान पिडा के जनक हैं। उनका पवित्रतम-पद देश पुण्यसलिला भगवती भागीरी का उत्पादक है. उस भगवती भागीरथी का, जो त्रिपथगा हैं, वर्ग, मत्य और पातालविहारिणी है; जो भगवान् शिव के शिरोदेश की मालती माला है. और है उस कंठगत कालकूट विपमता की शमन- कारिणी. जिनसे त्रिलोक के भस्मीभूत होने की आशंका उपस्थित हो गई थी। वे हैं कोटि मन्मथ मनमथन और उस निर्जीव के जीवन दाता. जो अपने किसलय कोमल करो में सुमन शर धारण करके त्रिलोक को पायत्त करता है। फिर यदि यह कहा जावे कि लोक में जो कुद पवित्र, उत्तम, उज्जल, और दर्शनीय है, वह शृंगार रस है. तो क्या पाचर्य क्योंकि वह से अलौकिकता निकेतन, समानविभूनि- नवव. रमी वैस.' का ही आदिम विकास तो है। मै रम-प्रकरण में अग्निपुराण के आधार से लिख पाया हूँ; सर्व व्यापक और सर्वशक्तिमान चिभु का स्वाभाविक आनंद अभियान अवन्या में चित्शक्ति सम्पन्न और चमत्कारमय होता है। उसके अहः भाव में अभिमान का श्राविर्भाव. और ममता संकलित अभिमान में रति की उत्पत्ति होती है। यही रति शृंगार रस की जननी है इसलिये गति उनका स्थायीभाव है। प्रकृनिवाद में रति शब्द का अर्थ लिया है-