पृष्ठ:रसकलस.djvu/९७

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महर्षि अत्रि का यह वचन है- पिता पुत्रस्य जातस्य पश्येच्चेजीवतो मुखम् । ऋणमस्मिन्स नयति अमृतत्व च गच्छति ।। पुत्र का जन्म होने पर जीवित पुत्र का मुख देखने से ही पिता पितरा के ऋण से मुक्त होता है और उसी दिन शुद्ध हो जाता है, क्योकि पुत्र पिता को नरक से बचाता है । वशिष्ट देव की यह आज्ञा है- अनन्ता. पुत्रिणा लोका नापुत्रस्य लोकोस्तीति श्रूयते । पुत्रवाले को अनत काल तक स्वर्ग मिलता है, पुत्र हीन मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती। बौधायन स्मृति का यह वाक्य है- जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिऋणी जायते ब्रह्मचर्येणपिम्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्य इति । ब्राह्मण से युक्त होकर जन्म लेता है, वह करने पर ऋषि-ऋण से, यज्ञ करने पर देव-ऋण से और संतान उत्पन्न करन पर पितृ-ऋण से छूटता है। -धर्मशास्त्रसग्रह। मगलमयी सृष्टि के सरक्षण के लिये किस प्रकार इन वचनो के द्वारा मनुष्य जाति को सतर्क किया गया है और कैसे एक धर्म-कार्य की ओर प्रवृत्ति दिलाई गई है और कितने रोचकभाव से, इसकी व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं । कितु एक विशेष वात की और दृष्टि आकर्पण प्रयोजनीय जात होता है। वह यह कि सतानोत्पत्ति इसलिये आवश्यक है कि जिससे मनुष्य तीन ऋण से मुक्त हो सके । वे तीन ऋण हैं, देव-ऋण, ऋपि-ऋण, और पितृ-ऋण । देव-ऋण चुकाने का अर्थ है, अनेक यनो और सदनुष्ठानो द्वारा सर्व भूत हित और लोक सेवा, ऋषि-ऋण से मुक्त होने का भाव है सच्छास्त्री का पठन और मनन कर जनसाधारण मे सद्भावो और विश्व- तीन ऋण ब्रह्मचर्य धारण