है—"श्रुत" शब्द के अर्थ पंडित जीवानन्द विद्यासागर ने ये किये है—"श्रुत" शास्त्रज्ञानं लोकाचारादिज्ञानश्च।" सृष्टि-कार्य और मानव-स्वभाव इन दोनों के ज्ञान का बोध लोकाचारादि ज्ञान है। उसका उल्लेख हाली ने अपनी दूसरी और तीसरी शर्त 'सृष्टिकार्य पर्यालोचना' और 'शब्दविन्यास चातुर्य' में किया है। प्रगाढ़ अभ्यास की आवश्यकता हाली ने "आमद और आवुर्द में फ़र्क"—इस विषय पर बहस करते हुए सिद्ध की है। इसी अभिप्राय का एक श्लोक यह भी है—
शक्तिर्निपुण्नः लोकशास्त्रकार्याद्यवेक्षणात्।
काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भभवे॥
अर्थात् प्रतिभाशक्ति, काव्यादि शास्त्र तथा लोकाचारादि के अवलोकन से प्राप्त हुई निपुर्णता और काव्यों की शिक्षा के अनुसार अभ्यास, ये तीनों बातें कविता के उद्भव में हेतु है। कई आचार्यों ने प्रतिभा ही को काव्यका कारण मानकर व्युत्पत्तिको उसकी सुन्दरता और अभ्यास को वृद्धि का हेतु माना है यथा—
कवित्वं जायते शक्तेर्वर्द्धऽभ्यासयोगतः।
तस्य चारुत्वनिष्पत्तौं व्युत्पत्तिस्तु गरीयसी॥
इस मत की पुष्टि भी हाली के उस लेख से होती है, जो उन्होंने सब से पहली शर्त "तखय्युल" (प्रतिभा) पर लिखा है।
इन्हीं सब बातों को हाली ने अपने मुकदमें में, ३७ से ५४ पृष्ट तक, उदाहरणादिको से पल्लवित किया है।
सृष्टि-कार्य-निरीक्षण की आवश्यकता कवि को क्या है? इस बात का हाली ने 'मसनबी' पर बहस करते हुए, एक उदाहरण द्वारा, समझाया है। वे लिखते हैं—
. . .इसी प्रकार क़िस्से में ऐसी छोटी-छोटी प्रासङ्गिक बातों का बयान करना, जिन्हें तजरवा और मशाहिदा झुटलाते हो,