कदापि उचित नही। इससे आख्यायिकार का इतना वेसलीका- पन सावित नहीं होता, जितनी उसकी अज्ञता और लोकवृत्तान्त से अनभिन्नता, या जरूरी अनुभव प्राप्त करने से वेपरवाई सावित होती है । जैसाकि "वदरे मुनीर" मे एक खास मौके और वक्त का समाँ इस तरह वयान किया है-
आखीर मिसरे से साफ प्रतीत होता है क एक तरफ धान खड़े थे और एक तरफ सरसों फूल रहीथी। मगर यह वात वाले के खिलाफ है, क्योंकि धान खरीफ में होते हैं और सरसो रवी -5 में, गेहुंओ के साथ वोई जाती हैं।
कवि-कुल गुरु कालिदास के विश्व विख्यात काव्य, तथा कविवर बिहारीलाल की सतसई से, इसी विषय का, एकक प्रत्युदाहरण सुनिये-
रघु की दिग्विजयार्थ यात्रा के उपोद्घात में शरद ऋतु का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ईख की छाया में बैठी हुई धान रखाने वाली स्त्रियाँ रघु का यश गाती थीं। शरद्-काल में जत्र धान के खेत पकते हैं तब वह इतनी-इतनी बड़ी होजाती है कि उसकी छाया में बैठकर खेत रखा सकें। ईख और धान के खेत भी प्राय जस ही पास हुआ करते है । कविको ये सब वाते विदिन थी । श्लोक में इस दशाका-इस वास्तविक घटना का-