चित्र-सा खींच दिया गया है। श्लोक पढ़़ते ही वह समाँ आँखों में फिरने लगता है।
महाराजाधिराज विक्रमादित्यके सखा, राजसी ठाठ से रहने वाले कालिदास, ने ग़रीब किसानों की, नगर से दूर, जङ्गल से सम्बन्ध रखने वाली एक वास्तविक घटनाका कैसा मनोहर चित्र उतारा है। यह उनके प्रकृति-पर्यालोचक होने का दृढ़ प्रमाण है। दूसरा प्रत्युदाहरण—
सन सूक्यौ बीत्यौ बनौ ऊखौ लई उखारि।
हरी-हरीअरहर अजौ धर धर हर हिय नारि॥
—सतसई
पहले सन सूखता है, फिर बनबाड़ी या कपासके खेतकी खहार खतम होती है। पुनः ईख के उखड़ने की बारी आती है। और इन सब से पीछे गेंहुओं के साथ तक, अरहर हरी-भरी खड़ी रहती है।
ये सब बातें कवि ने कैसे सुन्दर और सरल ढङ्ग से क्रम पूर्वक इस दोहे में बयान की हैं। इसमें अनुप्रास की छटा आदि अन्य काव्य-गुणों पर ध्यान दिलाने का यह अवसर नहीं। यहाँ तक पूर्वोक्त महाशय की राय हुई।
कविता को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उचित शब्द स्थापना की भी बड़ी ज़रूरत है। किसी मनोविकार का दृश्य के वर्णन में ढूंढ-ढूंढ कर ऐसे शब्द रखने चाहिये जो सुनने वाले की आँखों के सामने वर्ण्य-विषय का चित्र-सा खींच दे। मनोभाव चाहे कैसा ही अच्छा क्यों न हो, यदि वह तदनुकूल शब्दों में न प्रकट किया गया तो उसका असर यदि जाता नहीं रहता तो कम ज़रूर हो जाता है। इसीलिये कवि को चुन-चुन कर ऐसे शब्द रखने चाहिये, और इस क्रम से रखने चाहिये; जिससे