झाड़ियों का नाम न हो। वह खूब साफ और हमवार हो, जिससे उस पर चलने वाला आराम से चला जाय। जिस तरह सड़क जरा भी ऊँची नीची होने बाइसिकल (पैरगाड़ी) के सवार को दचके लगते हैं उसी तरह कविता की सड़क यदि थोड़ी भी नाहसवार हुई तो पढ़ने वाले के हृदय पर धक्का लगे बिना नहीं रहता। कविता-रूपी सड़क के इधर-उधर स्वच्छ पानी के नदी-नाले बहते हो, दोनों तरफ फलों-फूलों से लदे हुए पेड़ हों, जगह- जगह पर विश्रास करने योग्य स्थान बने हो; प्राकृतिक दृश्यों की नयी-नयी झाँकिआँ आँखों को लुभाती हो। दुनियाँ में आज तक जितने अच्छे अच्छे कवि हुए है उनकी कविता ऐसी ही देखी गयी है। अटपटे भाव और अटपटे शब्द-प्रयोग करने वाले कवियों की कभी कद्र नहीं हुई। यदि कभी किसी को कुछ हुई भी है तो थोड़े ही दिनों तक। ऐसे कवि विस्मृति के अन्धकार में ऐसे छिप गए है कि इस समय उनका कोई नाम तक नहीं जानता। एक मात्र सूची शब्द-झङ्कार ही जिन कवियों की करामात है उन्हें चाहिए कि वे एक दम ही बोलना बन्द कर दे।
भाव चाहे कैसा ही ऊँचा क्यों न हो, पेंचीदा न होना चाहिए। वह ऐसे शब्दों के द्वारा प्रकट किया जाना चाहिए, जिनसे सब लोग परिचित हो। मतलब यह कि भाषा बोलचाल की हो। क्योंकि कविता की भाषा बोल-चाल से जितनी ही अधिक दूर जा पड़ती है उतनी ही उसकी सादगी कम हो जाती है। बोलचाल से मतलब उस भाषा से है, जिसे ख़ास और आम सब बोलते, विद्वान् और अविद्वान् दोनों जिसे काम में लाते हैं। इसी तरह कवि को मुहाविरे का भी ख्याल रखना चाहिए। जो मुहावरे सर्वसम्मत है, उसी का प्रयोग करना चाहिए। हिन्दी और उर्दू में कुछ शब्द अन्य भाषाओं के भी आ गये है।