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३-कवि और कविता
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व यदि वोल-चाल के है तो उनका प्रयोग सढोप नही माना जा सकता। उन्हे त्याज्ये नहीं समझना चाहिए। कोई-कोई ऐसे शब्दो को उनके मूल-रूप मे लिखना ही सही समझते है। पर यह उनकी भूल है। जब अन्य भापा का कोई शब्द किसी और भापा मे आ जाता है तब वह उसी भापा का हो जाता है। अतएव उसे उसकी मूल भापा के रूप मे लिखते जाना भापा विज्ञान के नियमो के खिलाफ है। खुद 'मुहावरह' शब्द ही को देखिए। जव उसे अनेक लोग हिन्दी मे 'महाविरा' निखने और बोलने लगे तब उसका असली रूप जाता रहा। वह हिन्दी का शब्द हो गया। यदि अन्य भाषाओ के बहु-प्रयुक्त शब्दो का मूल रूप ही शुद्ध माना जायगा तो घर, घड़ा, हाथ, पाव, नाक, कान, गश, मुसलमान, कुरान, मैगजीन, एडमिरल, लालटेन आदि शब्दो को भी उनके पूर्व रूप मे ले जाना पड़ेगा। एशियाटिक सोसाइटी के जनवरी १६०७ के जर्नल मे मच और अँगरेजी आदि यूरोपियन भापात्रो के १३८ शब्द ऐसे दिये गये है जो फारस के फारसी अखबारो में प्रयुक्त है। इनमें से कितने ही शब्दो का रूपान्तर हो गया है। अत्र यदि इस तरह के शब्द अपने मूल रूप में लिखे जायंगे तो भाषा मे बेतरह गडवड़ पेढा हो जायगी।

असलियत से मतलब यह नहीं कि कविता एक प्रकार का इतिहास समझा जाय और हर बात मे संचाई का ख्याल रक्खा जाय। यह नहीं कि सच्चाई की कसौटी पर कसने पर यदि कुछ भी कसर मालूम हो तो कविता का कवितापन जाता रहे। असलियत से सिर्फ इतना ही मतलब है कि कविता वेबुनियाद न हो उसमें जो उक्ति हो वह मानवी मनोविकारों और प्राकृतिक नियमों के आधार पर कही गई हो। स्वाभाविकता से उसका लगाव न छूटा हो। कवि यदि अपनी या और किसी की तारीफ