बहुत बड़ी महत्ता की बोधक है। बाल्मीकि को ऐसी उच्चाशय रमणी का विस्मरण होते देख किस कविता-मर्मज्ञ को आन्तरिक वेदना न होगी?
तुलसीदासजी ने भी ऊर्म्मिला पर अन्याय किया है। आपने इस विषय में आदि कवि का ही अनुकरण किया है। "नाना पुराणानिगमागमसम्मत" लेकर जब-रामचरित मानस की रचना करने की घोषणा की थी, तब यहाँ पर आदि काव्य को ही अपने वचनों का आधार मानने की वैसी कोई ज़रूरत न थी। आपने भी चलते वक्त लक्ष्मण को ऊर्म्मिला से नहीं मिलने दिया। माता से मिलने के बाद, झट कह दिया —
गये लषण जह जानकिनाथा।
आपके इष्टदेव के अनन्य सेवक 'लषण' पर इतनी सख्ती क्यों? अपने कमण्डलु के करुणावारि का एक भी बूँद आपने ऊर्म्मिला के लिए न रक्खा। सारा का सारा कमण्डलु सीता को समर्पण कर दिया। एक ही चौपाई में ऊर्म्मिला की दशा का वर्णन कर देते। अथवा उसी के मुँह से कुछ कहलाते। पाठक सुन तो लेते कि राम-जानकी के वनवास और अपने पति के वियोग के सम्बन्ध में क्या-क्या भावनाये उसके कोमल हृदय में उत्पन्न हुई थी। ऊर्म्मिला को जनकपुर से साकेत पहुँचा कर उसे एक दम ही भूल जाना अच्छा नहीं हुआ।
हाँ, भवभूति ने इस विषय में कुछ कृपा की है। राम-लक्ष्मण और जानकी के वन से लौट आने पर भवभूति को बेचारी ऊर्म्मिला एक बार याद आ गई है। चित्र-फलक पर ऊर्म्मिला को देख कर सीता ने लक्ष्मण से पूछा—"इयमप्यपरा का?" अर्थात् लक्ष्मण कौन है? इस प्रकार देवर से पूछना कौतुक से खाली नहीं। इसमें सरसता है। लक्ष्मण इस बात को समझ गये। वे कुछ लज्जित होकर मन ही मन कहने लगे—ऊर्म्मिला