पृष्ठ:रसज्ञ रञ्जन.djvu/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८-कवियों की ऊर्मिला-विषयक उदासीनता
९१
 

बहुत बड़ी महत्ता की बोधक है। बाल्मीकि को ऐसी उच्चाशय रमणी का विस्मरण होते देख किस कविता-ममझ को आन्तरिक वेदना न होगी? .

तुलसीदासजी ने भी अम्मिला पर अन्याय किया है। आपने इस विषय में आदि कवि का ही अनुकरण किया है। "नाना- पुराणानिगमागमसम्मत" लेकर जब-रामचरित मानस की रचना करने की घोषणा की थी, तब यहाँ पर आदि काव्य को ही अपने वचनों का आधार मानने की वैसी कोई जरूरत न थी। आपने भी चलते वक्त लक्ष्मण को ऊम्मिला से नहीं मिलने दिया। माता से मिलने के बाद, मट कह दिया-

गये लषण जह जानकिनाथा।

आपके इष्टदेव के अनन्य सेवक 'लपण' पर इतनी सख्ती क्यो ? अपने कमण्डलु के करुणावारि का एक भी बूँद आपने ऊम्मिला के लिए न रक्खा। सारा का सारा कमण्डलु सीता को समर्पण कर दिया। एक ही चौपाई में मिला की दशा का वर्णन कर देते। अथवा उसी के मुँह से कुछ कहलाते। पाठक सुन तो लेते कि राम-जानकी के बनवास और अपने पति के वियोग के सम्बन्ध में क्या-क्या भावनाये उसके कोमल हृदय में उत्पन्न हुई थी। अम्मिला को जनकपुर से साकेत पहुँचा कर उसे एक दम ही भूल जाना अच्छा नहीं हुआ।

हाँ, भवभूति ने इस विषय में कुछ कृपा की है। राम-लक्ष्मण और जानकी के वन से लौट आने पर भवभूति को बेचारी ऊमिला एक वार याद आ गई है। चित्र-फलक पर अम्मिला को देख कर सीता ने लक्ष्मण से पूछा-"इयमप्यपरा का ?" अर्थात् लक्ष्मण कौन है? इस प्रकार देवर से पूछना कौतुक से खाली नहीं। इसमे सरसता है। लक्ष्मण इस बात को समझ गये। वे कुछ लज्जित होकर मन ही मन कहने लगे-ऊम्मिला