पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१०

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(१०) 'कविप्रिया' कविशिक्षा की पुस्तक है, इसमें संस्कृत के अलंकार-संप्रदाय- वाले आचार्यों का अनुगमन है । इसके मुख्य आधार-ग्रंथ हैं--कविकल्पलतावृत्ति और काव्यादर्श । प्रारंभ में अंधवधिरादि दोष डिंगल के काव्यप्रवाह से ले लिए गए हैं। बारहमासा लोकप्रवाह से पाया है और नखशिख की परंपरा फारसी की है । यद्यपि केशव के पूर्व संस्कृत में ध्वनि की स्थापना भली भांति हो चुकी थी तथापि इन्होंने अलंकार की पुरानी धारणा को ही प्रधानता दी । इन्होंने 'अलंकार' शब्द को उसी व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है जिसमें उसको दंडी, वामन आदि प्राचीन आचार्यों ने लिया है । इसी से पारिभाषिक अर्थ के अनुसार विशेषालंकार' के अतिरिक्त इन्होंने 'सामान्यालंकार' के अंतर्गत काव्य की शोभा बढ़ानेवाली सभी सामग्री जुटा दी है। इनके दूसरे लक्षण- ग्रंथ 'रसिकप्रिया' में संस्कृत के तद्विषयक बहुप्रचलित ग्रंथों से कुछ भिन्नता है । पर इसका यह अर्थ नहीं कि केशव ने इसमें कोई नई बात लिखी है । इन्होंने नायिकाभेद का सूक्ष्म तत्त्व न समझकर इसमें कुछ बातें 'का मतंत्र' की भी जोड़ दी है। इनके अनुकरण पर आगे चलकर कुछ कवियों ने नायिकाभेद के ऐसे ग्रंथ भी प्रस्तुत किए जिनमें कामशास्त्र का रंग गहरा चढ़ गया। शृंगार के जो दो भेद 'प्रकाश' और 'प्रच्छन्न' किए गए है वे भी पुराने हैं। रसिकप्रिया के आधारभूत ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र', 'कामसूत्र' तो हैं ही, रुद्रभट्ट के शृंगारतिलक का पूरा आधार इसमें ग्रहण किया गया है। केशव ने 'विज्ञानगीता' संस्कृत के 'प्रबोधचंद्रोदय' नाटक के आधार पर लिखी है। पर जिस प्रकार इन्होंने अन्य ग्रंथों में मूल ग्रंथों से कुछ न कुछ भिन्नता रखी है उसी प्रकार इसमें भी। कथा के नाटकीय रूप में थोड़ा सा परिवर्तन कर दिया गया है, यद्यपि संवादों का रूप-रंग और पात्र प्रायः वे ही हैं। एक बात और है। केशव ने जिस प्रकार रामचंद्रचंद्रिका में यथास्थान पंडित्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति दिखाई है उसी प्रकार 'विज्ञानगीता' में भी शरद् आदि के वर्णन अनावश्यक ही जोड़ दिए गए हैं। नायिकाभेद नायक-नायिकाभेद का संबंध रसप्रवाह और नाट्यप्रवाह से है। वहाँ अभिनय के लिए नायकादि के भेद की अपेक्षा थी। उसी दृष्टि से उसका विचार वहां किया गया । नाट्यशास्त्र में नायिका के जो भेद दिए गए हैं वे कई प्रकार के हैं। जब नाटय और काव्य दोनों का भेदक अभिनय नहीं रह गया केवल स्वरूपभेद ही रह गया तब नायिकाभेद नाटक के रूपभेद के अंतर्गत व्यवस्थित कर दिया गया। भरत के नाट्यशास्त्र से दशरूपक तक आते आते