पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/११

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ane यही स्थिति रह गई थी। इसलिए आगे चलकर वह अंश केवल काव्योपयोगी समझकर पृथक् कर लिया गया । भानुदत्त ने रसतरंगिणी और रसमंजरी ग्रंथ लिखकर इसे स्पष्ट कर दिया है। पर इसके पूर्व रस के साथ ही नायिकाभेद का भी विचार होता था । पार्थक्य नहीं किया गया था । भरत के नाट्यशास्त्र के अनंतर काव्यप्रवाह या श्रव्यप्रवाह के जिस ग्रंथ में सर्वप्रथम नायिकाभेद का उल्लेख मिलता है वह रुद्रट का काव्यलंकार है । रुद्रट के अनंतर रुद्र या रुद्रभट्ट ने 'शृंगारतिलक' नाम के ग्रंथ में प्रधान रूप से शृंगार का और तदंतर्गत नायक-नायिका-भेद का पर्याप्त विवेचन किया है। अंत में अन्य रसों का संक्षेप में निरूपण है । यही हिंदी के शृंगारी ग्रंथों की मूल वृत्ति । विस्तार से शृंगार का विचार करना और संक्षेप में अन्य रसों का विवेचन कर देना । अन्य रसों का विवेचन होने पर भी रुद्र भट्ट ने अपने ग्रंथ का नाम 'शृंगार तिलक' ही रखा है, 'रसतिलक' नहीं। अतः जो यह कहते हैं कि हिंदी के रीतिकाल का नाम शृंगारकाल नहीं होना चाहिए, क्योंकि उसमें शृंगार के अतिरिक्त अन्य रसों का भी साथ ही विवेचन किया गया है उन्हें 'शृंगारतिलक' तथा इसी प्रकार के अन्य अनेक ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए और परंपरा से परिचय प्राप्त करने का अभ्यास डालना चाहिए । संस्कृत में स्वयम् 'रस' भब्द शृंगार का पर्यायवाची हो गया था। रुद्रट का समय आनंदवर्धन के पूर्व माना जाता है, क्योंकि उन्होंने आनंद- वर्धन के ध्वनिसिद्धांत की चर्चा अपने ग्रंथ में नहीं की है। इसलिए विक्रम की नवीं शताब्दी के अंत में उनका सत्ताकाल प्रतीत होता है ! उनका दूसरा नाम शतानंद भी था । पहले कुछ सज्जन रुद्रटभट्ट और रुद्र भट्ट को एक ही मानते थे । पर अब यह सिद्ध हो गया हैं कि ये दो पृथक् व्यक्ति हैं—एक का नाम रुद्रट है और दूसरे का केवल रुद्र । काव्यसंबंधी दृष्टि भी दोनों की भिन्न है। रुद्रट अलंकार-प्रवाह के प्राचार्य हैं और रुद्रभट्ट रस-प्रवाह के । रुद्रभट्ट ने रुद्रट के ग्रंथ से सहायता भी प्राप्त की है, इसलिए ये विशिष्ट प्राचार्य नहीं माने जाते । रुद्रभट्ट संकलयिता के रूप में ही माने जाते हैं। रुद्रट उद्भावना करनेवाले प्राचार्य हैं। उन्होंने रसप्रवाह के नौ रसों के अतिरिक्त 'प्रेयस्' नामक दसवें रस की कल्पना की है। अन्यत्र भी उनमें नवीन कल्पनाएँ मिलती हैं। रुद्र भट्ट का केवल एक ही यंथ 'शृंगारतिलक' मिलता है। इन्होंने और भी

  • शतानन्दपराख्येन

मट्टवामुकसूनुना। साधितं रुद्रटेनेदं सामाजाधीमतां हितम् ।।-- काव्यालंकार-टीका ।