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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१११

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द पंचम प्रभाव अथ स्वयंदूतत्व-लक्षण-(दोहा) (१५२) जौ क्यों हूँ न मिलै कहूँ, केसव दोऊ ईठ । तौ तब अपने आप ही, बुधिबल होत बसीठ ।१३॥ शब्दार्थ-ईठ % (इष्ट) मित्र । अपने आप ही= स्वयम् ही । बसीठ 3 ( अवसृष्ट विसृष्ट ) दूत । (१५३) श्रीराधिकाजू को प्रच्छन्न स्वयंदूतत्व, यथा-( सवैया ) दूरि तें देखिबे कौं है दीन मनाई हुती लिखि ही लिखि चीठी। देखें मिल्यो मनु हौं हू मिली मिलि खेलिबे हूँ को मिली मति मीठी। ऐसे में और चलाइहौ केसव. कैसहूँ कान्ह कुमार दै ढीठी । लागै न बार मृनाल के तार ज्यों टूटैगी लाल हमैं तुम्हें ईठी ।१४। शब्दार्थ-हुती थी । मीठी-अच्छी । ढीठी = धृष्टता । बार-देर । ईठी= मित्रता। भावार्थ-(नायिका की उक्ति नायक प्रति) अत्यंत दीन हो होकर दूर से ही देख लेने के लिए चिट्ठियां लिख लिखकर आपने मनाया । देखने पर मन मिल गया । मैं भी आपसे मिली। मिलकर खेलने के लिए मधुर मति भी मिल गई ( खेल खेलने की सुहावनी बुद्धि भी जगी) ऐसे अवसर पर हे कान्ह कुमार, यदि धृष्टतापूर्वक और कोई चर्चा चलाएँगे ( जाने की बात करेंगे ) तो हे लाल, हमारी आपकी मित्रता टूट जायगी, मृणाल तार की भाँति उसके टटने में कुछ भी देर न लगेगी ( यह आपने चलने का क्या झगड़ा छोड़ दिया )। अलंकार-दृष्टांत । सूचना-प्रमुद्रित प्रतियों में इसके बाद एक सवैया और मिलता है जो पूर्ण हस्तलिखित प्रति में नहीं है। पुनः प्रिया को स्वयंदूतत्व, यथा-( सवैया ) छुवौ जनि हाथ सों हाथ किये पल ही पल बाढ़त प्रेमकला । न जानिये जी मैं कहा बसि जाइ चलै पुनि केसब कौन चला। भले ही भले निबहे जो भली यह देखिबे ही की हला हू भला । मिलौ मन तौ मिलिबौई कहूँ मिलिषौ न अलौकिक नंदलला । श्रीराधिकाजू को प्रकाश स्वयंदूतत्व, यथा-( सवैया ) (१५४)घाई नहीं घर दाई परी जुर,आई खिलाई की आँ खि बहाऊँ। पौरिये आवै रतौंधी इते पर ऊँचो सुनै सु महा दुख पाऊँ। १३-लक्षण-वर्णन । होत-होइ, करत । १४-मनाई-पठाई। ढोठी- वोठी । लागै०-ह्व है न, तो ह है। सृनाल-मुराति, मुरारि ।