पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/११२

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रसिकप्रिया 1 कान्ह निबेरहु न्याउ नयो इन आलिन को लगि हौं बहराऊँ। ए सब मो सँग सोवन आवै कि मैं इनके सँग सोवन जाऊँ ।१५॥ शब्दार्थ-धाई = ( धातृ ) अपना दूध पिलाकर बच्चों को पालनेवाली । दाई= परिचारिका । आई = ( प्रार्या ) अइया । खिलाई खिलाई हुई, खाने मात्र पर सेवा करनेवाली । बहाऊँ = आँसू बहानेवाली । पौरिय = द्वार- पाल को । निबेरहु = निपटा दो। भावार्थ -घर में धाय नहीं है। दाई ज्वर में पड़ी है। आई की आँखें आंसू बहाती रहती हैं ( वह भी देखने में अशक्त है) द्वारपाल को रतौंधी आती है (रात में सूझता ही नहीं)। ( यही क्यों ) इतने पर भी वह ऊँचा सुनता है ( बहरा हैं ), इसलिए बड़ा दुख पा रही हूँ। हे कान्ह, मेरे इस नए (विलक्षण) न्याय का निबटारा करते जाइए । मैं इन सखियों से आखिर कब तक अपने मन को बहलाती रहूँ। ( दिन में तो किसी प्रकार समय कट भी जाता है पर रात कैसे कटे ) इसलिए या तो ये सब मेरे साथ सोने के लिए ( मेरे घर पर) प्राया करती हैं या मैं ही इनके यहां सोने चली जाया करती हूँ ( मुझे अकेले बड़ा भय लगता है )। सूचना-'आई' का अर्थ 'आर्या' करके 'बुड्डी' करने के बदले 'प्रांख आई' अन्वय भी कर सकते हैं। श्रीकृष्णजू को प्रच्छन्न स्वयंदूतत्व, यथा—(कबित्त) ११५५) बापनेही भाइ के ए सोहत सरीक से वे, केसौदास दास ज्यों चलत चित लीने हैं। आपुहीं अठाउ कै ये लेत नाउँ मेरो वे तौ, बापुरे मिलाप कै सँलाप करि हीने हैं। राधिकै सुनाइ कै कहत ऐसे घनस्याम, सुबल को लै लै नाम कामभयभीने हैं। साथ लै सखानि अब जैबो बन छाड्यो हम, खेलिबे को संग सखा साखामृग कीने हैं ।१६। शब्दार्थ-ये = गोपसखा । सरीक = साथ । - वानर सखा। चित लाने=चित्त मिलाकर, उनकी मरजी का ध्यान रखकर । अठाउ- शरारत । बापुरे = वे वारे । मिलाप = मेल । सँलाप = बातचीत। सुबल = ( स्वबल) अपनी सेना या अपना बल । साखामृग =बंदर । १५-जुर-जुरि । पाई-पाई । को-कि । बहाऊं-महाऊँ । पौरिये-पोरि पै। रतौंधी-रत्यौंधु । बहराऊँ-समझाऊँ । मैं इनके ०-हौं इनके सब । १६- प्रापनेही-मापनेई । भाइ के-भाउ को। चित-चिह्न । प्रापुहीं-आपुए । के ये- के तो। मेरो-मेरे । सलाप-संताप | राधिक-प्रिया को भय-रस ।