१४२ रसिकप्रिया श्रीराधिकाजू को मोट्टाइत हाव, यथा-(सवैया) (२२६) खेलत हे हरि बागे बने जहाँ बैठी प्रिया रति तें अति लोनी । केसव कैसहूँ पीठि में डीठि परी कुच कुकुम की रुचि रोनी। मात-समीप दुराई भले तिनि सातुक-भावनि की गति होनी । धूरि कपूर की पूरि बिलोचन सूघि सरोरुह बोढ़ि उढ़ोनी ।४।। शब्दार्थ-हे थे। बागे बने = पोशाक पहने । लोनी-सुदर । रुचि % शोभा । रोनी = रमणीय, अच्छो । दुराईछिपाई। तिनि = उन्होंने ( नायिका ने )। मावार्थ--( सखी की उक्ति सखी से ) श्रीकृष्ण पोशाक पहने वहां खेल रहे थे जहाँ रति से भी बढ़कर सुदर नायिका बैठी हुई थी। किसी प्रकार नायिका की दृष्टि श्रीकृष्ण की पीठ (के वस्त्र) पर पड़ी जहां स्तनों की केसर की सुंदर शोभा दिखाई पड़ रही थी ( नायिका ने कभी पीछे से नायक को आलिंगन किया था जिससे स्तनों की केसर का चिह्न उसकी पीठ में लग गया था)। देखते ही उसे सात्विक भाव हो पाया। उन सात्विकों की होनेवाली गति ( उनके प्रकाशित होने को ) उसने माता के समीप ( होने के कारण) भली भांति ( इस प्रकार ) छिपाया कि कपूर की धूल तो नेत्रों में भर ली, कमल सूघ लिया और प्रोढ़नी प्रोढ़ ली ( कपूर की धूल से आंसू पाते हैं, कमल सूधकर उसकी प्रशंसा में सिर हिलाया जाता है और प्रोढ़नी ओढ़ लेने से चेहरा और शरीर छिप जाता है इस प्रकार चार सात्विक छिपाए गए-मश्रु, कंप, रोमांच और वैवर्ण्य ) । अलंकार-युक्ति ( केशव के मत से 'लेश' )। सूचना-'कविप्रिया' में यह छंद लेशालंकार के उदाहरण में दिया गया है। श्रीकृष्णजू को मोट्टाइत हाव, यथा-( सवैया ) (२३०) भोजन के वृषभानु-सभा महँ बैठे हे नंद सदा सुखकारी । गोप घने, बल बीर बिराजत, खात बनाइ बिरी गिरिधारी। राधिका झाँकी झरोखे कै झाँप सी लागी, गिरे मुरझाइ बिहारी। सोर भयो समुझे सकुचे हरुवाइ कह्यो हरि लागि सुपारी ।। शब्दार्थ-घने = अधिक । झरोखे ह्व=खिड़की से । झाँप सी लागी झांई सी आ गई, चक्कर सा आ गया। बलबीर - भाई बलराम । गिरि- धारी =श्रीकृष्ण । बिहारी = श्रीकृष्ण । हरुवाइ= हड़बड़ाकर । ४६-प्रिया-तिया। तिनि-जिहि । सातुक-सात्विक । ५०–हे-हैं । सुखकारी-सुभकारी। राधिका० । राधिका झांकि झरोखनि ह कबि केसव रोझि गिरे स बिहारी । भयो-परचों । को-कही।
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