पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१४१

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षष्ठ प्रभाव १४३ अलंकार-युक्ति । अथ कुट्टमित हाव-लक्षण- (दोहा) (२३१) केलि-कलह में सोभिजै केलि कपट पट रूप । उपजत है तहँ कुट्टमित हाव कहत कबिभूप ।५१। भावार्थ-केलि के कलह में जहाँ कपटकेलि का छिपा रूप दिखलाई पड़े अर्थात् नायक या नायिका जहाँ कलह के बहाने प्रच्छन्न केलि का ही आनंद लें, वहाँ कुट्टमित हाव होता है । श्री राधिकाजू का कुट्टमित हाव, यथा-( सवैया ) (२३२) पहिले हठि रूठि चली उठि पीठि दै मैं चितई सखि तैं न लखीरी पुनि धाइ धरी हरिजू की भुजानि तें छूटिबे कों बहु भाँति झखीरी। गहिकै कुच-पीड़न दंत नखच्छत बैरिन की मरजाद नखी री । पुनि ताहि कों पान खवावति हैं उलटी कछू प्रीति की रीति सखीरी।५२। शब्दार्थ-हठि = हठपूर्वक । रूठि = अप्रसन्न होकर । पीठि दे मुंह मोड़ कर। धाइ = दौड़कर । झखी री = व्याकुल हुई। कुच-पीड़न=स्तनों का मर्दन । बैरिन की = शत्रु की । मरजाद नखी री= सीमा लाँघ गए । बैरिन. शत्रु अपने शत्रु को जितना कष्ट दे सकता है उसकी सीमा भी पार कर गए, शत्रु से अधिक कष्ट दिया । श्रीकृष्णजू को कुट्टमित हाव, यथा-( सवैया ) (२३३) देखत ही जि हिं मौन गही अरु मौन तजें कटु बोल उचारे। सौहैं कियेहूँ न सौंहो कियो मनुहारि कियेहूँ न सूधे निहारे । हाहा कै हारि रहे मनमोहन पाइँ परें तिहि लातन मारे। मंडत हैं मुहँ ताही को अंग ले हैं कछू प्रेम के पाठ निन्यारे॥५३॥ शब्दार्थ-सौंहैं किये = शपथ करने पर भी। न सौंहो कियो = सामने मुंह नहीं किया। मनुहार = मिन्नत । हाहा के = दीनतापूर्वक विनय करके । मंडत हैं = सिंगार रहे हैं । अंक = गोद में । निन्यारे = विचित्र । भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी से ) आज राधिका श्रीकृष्ण को देखते ही मौन हो रहीं। फिर मौन छोड़ने पर कटु वचन कहने लगीं, यहां तक कि श्रीकृष्ण के शपथें खाने पर भी उन्होंने मुह सामने नहीं किया। मिन्नतें करने पर भी सीधी नजर नहीं देखा । वे दीनतापूर्वक विनय करके भी हार गए, तब पैरों पड़े और उन्होंने इन्हें लातों से झटक दिया। देखो, इस समय उसी का मुंह अपनी गोद में लेकर संवार-सिँगार रहे हैं। प्रेम के पाठ कुछ विचित्र ही हैं। ५१-सोभिजै-सोभिये, सोभिए । कपट-कलह । ५२-पुनि०-फिरि । चितई- ही लखी। गहिक ०-कुथपीड़न तन्खक्षत दै गिरि,.. दैनिज। ५३- लिहि-जिनि । तजें-तजी । कियेहूं-करेहूँ । मनमोहन-नंदनंदन । तिहि-तिन्ह ।