पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१४२

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रसिकप्रिया , अथ बोधक हाव-लक्षण-~-( दोहा ) (२३४) गूढ़ भाव को बोध जहँ, केसव औरहि होइ । तासों बोधक हाव सब, कहत सयाने लोइ ५४ शब्दार्थ-- बोध = ज्ञान, जानकारी। औरहि = दूसरे को (नायक या नायिका को)। श्रीराधिकाजू को बोधक हाव, यथा-( सवैया ) (२३५) बैठी हुतो बृषभानुकुमारि सखीन को मंडली मंडि प्रवीनी। लै कुभिलानो सो कंज परी इक पाइन आइ गुवारि नवीनी । चंदन सों छिरक्यो वह वा कहँ पान दए करनारसभीनी । चंदनचित्र कपोलनि लोपिकै अंजन आँ जि बिदा करि दीनी ५५॥ भावार्थ-( सखी की उक्ति सखी प्रति ) हे सखी, आज सखियों की मंडली में चतुर राधिका बैठी थीं। इतने ही में एक नवोढ़ा ग्वालिन हाथ में कुम्हलाया हुआ कमल लिए आई और उनके पैरों पड़ी। इन्होंने कमल पर चंदन छिड़का, करुणा. भाव से उसके हाथों में पान दिए, उसके कपोलों पर लगा हुआ चंदन छुड़ा दिया और नेत्रों में अंजन लगाकर उसे.बिदा दिया। गूढार्ग-भिलानो कंजराधिका के विरह में श्रीकृष्ण कमल की तरह मुरझा रहे हैं । पाइन परी = श्रीकृष्ण ने मिलने की प्रार्थना पैरों पड़कर की है। चंदन सों छिरक्यो = मैं उनका विरहताप शांत करूँगी। पान दए = मैं पान ( पारिण= हाथ ) देती हूँ, निश्चित मिलूगी। चंदनचित्र कपोलनि लोपिक - चंद्रमा के डूब जाने पर, चाँदनी हट जाने पर मिलूगी। अंजन आँजि. = अंधकार में मिलगी या श्याम मेरी आँखों में बसते हैं। अलंकार-सूक्ष्म । श्रीकृष्णजू को बोधक हाव, यथा-( सवैया ) (२३६) सखि गोकुल गोप-सभा महँ गोबिद बैठे हुते दुति कों धरिकै । जनु केसव पूरन चंद लसै चित चारु चकोरनि को हरिकै । तिनकों उलटो करि आनि दियो किहुँ नीरज नीर नएँ भरिकै । कहि काहे तें नेकु निहारि मनोहर फेरि दियो कलिका करिकै ॥५६॥ शब्दार्थ-दुति - तेज। किहुँ = किसी ने । नीरज = कमल । नेकु = थोड़ा सा । निहारि = देखकर । ५४-को-के । औरहि०-समुझत कोइ । सब-यों । ५५-की मंडली-के मंडल । मंडि-मध्य । आइ-पानि, प्रागें। इक०-जू कोऊ इक ग्वालिनि पाइ । चंदन-बंदन | छिरक्यो-छिरकी। कपोलनि लोपिक-कपोल बिलेपिक । ५६- गोकुल-मोहन, सोहत । चार-चार, चोर ।