पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/१६८

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अष्टम प्रभाव १७१ कोर= सुग्गा ( नासिका ) । कुचील = कुरूप, मलिन । भावार्थ-(नायक की उक्ति प्रात्मगत) यदि उसके (नायिका) के मुख की समता चंद्रमा से हूँ तो उसे राहु जलाता है और यदि उसके नेत्र को कमल कहूँ तो उसे भौंरे सताया करते हैं । अनार, बेल, मूगा और सोना भी अपने उपमेयों की समता नहीं कर सकते, क्योंकि ये भी अनेक ( करोड़ों ) कष्ट सहते हैं। इसी प्रकार चक्रवाक, कबूतर, हाथी, सर्प, सिंह, कोयल और शुक भी अपने-अपने उपमेयों की समता नहीं कर सकते, क्योंकि ये कुरूप हैं। उस नायिका के समस्त अंग अद्वितीय हैं, उनकी समता उन्हीं से हो सकती है। अलंकार-केशव ने इसे 'कविप्रिया' में दूषणोपमा के उदाहरण में रखा है । यह एक प्रकार का अनन्वय ही है । श्रीकृष्णजू को प्रकाश गुण कथन, यथा-( सवैया ) (३०५) लोचन बीच चुभी रुचि राधे की केसव क्योंहूँ सु जाति न काढ़ी। मानहुँ मेरे गही अनुरागनि कुकुम-पंक अलंकृत गाढ़ी । मेरियै लागि रही तनुता जनु यों दुति नील निचोल की बाढ़ी। मेरे ही मानो हिये कहँ सूंघति यों अरबिंद दियें मुख ठाढ़ी।२४। शब्दार्थ- चुभी = धंस गई। रुचि - कांति : मेरे० = मेरे प्रेम से गृहीत हैं, मेरे अनुरागों से युक्त हैं । कुंकुभ-पंक = केसर के गाढ़े लेप से युक्त । तनुता = शरीर का रंग (श्यामता) । नील निचोल= नाला वस्त्र । अरबिंद = कमल । भावार्थ-(नायक की उक्ति सखी से ) मेरे नेत्रो में राधिका की कांति ऐसी गड़ गई है कि किसी प्रकार निकाले नहीं निकलती । केसर के गाढ़े लेप से युक्त वे ऐसी जान पड़ती हैं मानो मेरे ही प्रेम को धारण किए हुए हैं। उनके नीले वस्त्र की शोभा तो ऐसी व्यक्त हो रही है मानो मेरे शरीर की ही श्यामता उन्हें लग गई है । वे जो मुंह से कमल लगाए हुए खड़ी हैं (उसे सूघ रही हैं) वह ऐसा जान पड़ता है मानो मेरे हृदय को ही सूध रही हैं । अलंकार-उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा । अथ स्मृति-लक्षण-(दोहा) (३०६) और कछू न सुहाइ जहँ, भूलि जाहि सब काम । मन मिलिबे को कामना ताही स्मृति है नाम ।२।। शब्दार्थ-सुहाइ न = अच्छा न लगे। श्रीराधिकाजू की प्रच्छन्न स्मृति, यथा-( सवैया ) (३०७) बोल्यो सुहाइ न खेल्यो हँस्यो अरु देख्यो सुहाइ न दुख्ख बढ़यो सो। नीकियौ बात सुनें समुझे न मनो मन काहू के मोह मढ थो सो । २४-क्यो हूँ सु-कैसहूँ । अलंकृत-फलकित । २५--जाहि-जाइ । ताही- ताको।