१८६ रसिकांप्रथा समय खिल रहे हों उसी समय किसी (प्रकाशपिंड में) चंद्रमा का भ्रम हो जाने से भूलकर (नखक्षत = द्वितीया का चंद्र) उसे देखते ही संकुचित हो गए हों। अलंकार-उत्प्रेक्षा। श्रीराधिकाजू को प्रकाश गुरुमान श्रवण तें, यथा-( सवैया ) (३४३) बूझति ही वह गोपी गुपालहि श्राजु कछू हँसिकै गुनगाथहिं । ऐसे में काहू को नाम सखी कहि कैसे धौं श्राइ गयो ब्रजनाथहि । खात खवावति ही जु बिरी सुरही मुख की मुख हाथ की हाथहिं । आतुर कै उनि आँखिनतें असुवा निकसे अखरान के साथहि ॥५॥ शब्दार्थ-बूझति ही = ( श्रीकृष्ण से ) पूछ रही थी। गुनगाथहि = उनकी गुणगाथा, उनकी बातें। कहि प्राइ गयो = मुख से निकल पड़ा। धौं कैसे० = न जाने कैसे श्रीकृष्ण के मुख से निकल पड़ा, गोत्रस्खलन हो गया। खाति खवावति ही =खा-खिला रही थी । ही = थी। बिरी = पान के बीड़े । सु रही०=नो पान वह खा रही थी वह तो मुह का मुंह में ही रह गया, दांतों से या होठों से जहाँ का तहाँ दबाए रह गई और जो हाथ में लेकर उन्हें खिलाने जा रही थी वह हाथ में ही ज्यों का त्यों रह गया, उन्हें खिला न सकी । भातुर व्यग्र होकर । उनि० = उनकी आँखों से । अखरान = नाम के अक्षरों के साथ । अलंकार-चपलातिशयोक्ति । अथ नायक को गुरुमान-लक्षण-( दोहा) (३४४) लोकलीक उल्लंधि कछु, प्रिया कहै जब बैन । उपजि परत गुरुमान तह, प्रातम के उर-ऐन ।६। शब्दार्थ-लोकलीक = लोकमर्यादा । उल्लंघि = उल्लंघन करके ( लोक- सीमा को पार करके ) । ऐन = ( अयन ) घर । उर-ऐन = हृदय. रूपी घर में, हृदय में। श्रीकृष्ण को प्रच्छन्न गुरुमान, यथा—(कबित्त ) (३४५) ऐसी ऐसी रति राचे सौहनि के साँचे स्याम, देखौ आनि बाँचि किधौं कौन की ये चीठी है। सुनहु सभागं पाई रावरीय पाग माहँ, कागर के रूप काहू आगि की अँगीठी है। जानति हौं याही मग पायो है जनम जग, प्रौरहूँ अलोकन की बीथी तुम दीठी है। ५-नाम-नाउ । कहि कैसे-सुनि प्रायो। आइ०-कैसे कहो। ६- उपजि०-उपजत है।
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