१८८ रसिकप्रिया शब्दार्थ-खोरि = दोष । खोरि = गली । घनी = अनेक । घरनानि = स्त्रियां। भावार्थ-( नायक के गुरुमान करने पर बहिरंग सखी की उक्ति नायिका से ) अगर कोई शिकायत करनी ही हो तो अपने लोगों से अपने ही सामने (एकांत में ) उसे कहते हैं। यह नहीं कि उसके दोषों का खजाना गलियों में खोलने लगें ( गली गली सबसे दोष कहते फिरना अनुचित है )। यदि किसी की दृष्टि किसी की ओर जाती है तो इतना ही किया जा सकता है कि वह उधर जाने से रोक ली जाय, यह तो हो नहीं सकता कि चाकू, लेकर नेत्र ही तराश दिए जायें । (आज तो तू ऐसी बातें करके उन्हें क्रुद्ध कर रही है और वियोग सहा रही है ) पर क्या जानती नहीं कि ये वे ही घनश्याम हैं जिनके घड़ी भर के वियोग के कारण अनेक स्त्रियों की ऐसी दशा हो जाया करती थी कि उनकी विरहाग्नि शांत करने के लिए कपूर घोलने की आवश्यकता पड़ जाती थी। तू कैसी बातें करने लगी है, तुझे इस प्रकार बोलना चाहिए जिस प्रकार साधारणतया बोलते हैं। मोल लिए हुए के प्रति भी क्या ऐसी बातें कही जाती हैं, जैसी बातें तूने अपने प्रिय श्रीकृष्ण के प्रति कही हैं ? (जो तेरे प्रेम में बिक चुका उसे ऐसी कड़ी बातें ! )। सूचना-सखी की उक्ति से स्पष्ट है कि नायिका ने ऐसी बातें कही हैं जैसी साधारणतः लोकमर्यादा के विरुद्ध हैं। श्रीकृष्ण की ओर से सखी उलाहना दे रही है । वह बहिरंग है अतः प्रकाश गुरुमान है। अथ लघुमान-लक्षण -( दोहा ) (३४७) देखत काहू नारि-त्यों, देखै अपने नैन । तहँ उपजत लघुमान कै, सुनें सखी के बैन it! शब्दार्थ-त्यौं = अोर । भावार्थ-स्वयम् अपनी आँखों से किसी दूसरी स्त्री की ओर देखते हुए नायक को देख लेने पर या ऐसी बात सखी से सुनने पर लघुमान उत्पन्न होता है। श्रीराधिकाजू को प्रच्छन्न लघुमान, यथा -(सवैया) (३४८) कान्ह तिहारी वा प्रानप्रिया के अयान सयान सबै मन माहीं। मान किधौं अपमान अब यह मानस पै अनुमाने न जाही। सुख दुख्ख न केसव जानि परे समुझ रिस हास न हाँ अरु नाहीं। यो खिनही सियरी खिन ताती है ज्यों बदलै बदरानि की छाहीं।१०। ६-उपजत-उपजै । सखी के-सखीय । १०-मानस पे-मान लखो। ‘अनुमाने-पहिचाने । न हां-नहीं अरु माहीं । यों-जो। ही-में। है-सो, सु । बदरानि-बदरान।
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