पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२२९

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२३४ रसिकप्रिया भावार्थ-चंचल, अमूल्य, कटाक्षों की क्रीड़ा करनेवाले, पानिप (शोभा; पानी) से अत्यंत लपलपाते, रसयुक्त, विशाल, मेरे मन को भानेवाले सचिक्करण, अत्यंत क्षीण नेत्र पट ( घूघट ) की ओट से ही स्थिरता के साथ जब तूने चलाए और हरि ने तेरी ओर देखा तब सब ही तेरे दास हो गए। तेरे नेत्र सोच को कम करनेवाले शोभा और प्रीति बढ़ानेवाले तथा धैर्य छुड़ा देनेवाले हैं। सूचना-(१) 'भोलि' के स्थान पर 'खोलि' पाठ भी मिलता है । इस पाठ के द्वारा 'ध्यान से निकालकर' अर्थ करना होगा । नेत्रों पर 'तलवार' का मारोप किया गया है। (२) 'अमोल', 'पानिप' आदि नाम लेने से 'सुनारिन' है । सुनारिन को वचन कृष्ण सों, यथा —(कबित्त) (४३३) हाँसी में हँसे तें हरि हरें के मुकति मन- हारि के हँसति हरि हिये अनुरागी है। प्रेम की पहेली गूढ़ जानत जनावतहीं, आजु अधरातक लौं मेरे संग जागी है। अब लौ ज्यों धरी धीर तैसें दिन द्वैक और, धरौ गिरिधर तुमते को बड़भागी है। भावती तिहारी वह काल्हि ही तें केसौराय, काम की कथान कछु कान देन लागी है ।२२। शब्दार्थ-हरें कै= धीरे धीरे । झकति=सिर नवा लेती है । मनहारिः प्रार्थना । हिये-हृदय में, छाती में । जानत = बूझती। जनावतही-बुझाती हुई। भावार्थ-हँसी में भी हँसने पर धीरे धीरे वह सिर नवा लेती है । प्रार्थना करके तो हँसती ( और हँसाती) है। अपनी छाती की ओर देखकर प्रेम प्रकट करती है। प्राज तो कोई प्राधी रात तक प्रेम की गूढ़ पहेली बूझती-बुझाती हुई मेरे साथ जागती रह गई। जिस प्रकार अब तक धैर्य रखा उसी प्रकार दो दिन और धैर्य रखो। हे गिरिधर, तुमसे बढ़कर भाग्य- शाली और कोई नहीं। तुम्हारी यह प्रेमिका कल से ही काम-कथा में कुछ कान देने ( मन लगाने ) लगी है। रामजनी को वचन राधिका सों, यथा-( कबित्त ) (४३४) कोमल कमल वे तो अमल ये विक्ष चन, मलिन नलिन नवनील के से पात हैं। २२-हसे तें-भ तें। हरे के हरिकै । मनहारि-मन हरि, मन हरे। संग-साय । परी०-धीरपरयो । केसोराय-केसोवास -