पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२३०

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द्वादश प्रभाव २३५ सूधे साधु सुद्ध वे तौ कुटिल प्रसिद्ध ये तो, केसव मरम-चोर परम किरात हैं। पाइहैं पकरि तब पाइहै न कैसेंहू तूं, थोरो इठलात ये तो अति इठलात हैं। बरजति क्यों न तो सों कब की कहति, मेरे मोहन के मनै तेरे नैन छवै छवै जात हैं ।२३। शब्दार्थ-अमल = स्वच्छ । तिक्ष = तीक्ष्ण । चल चंचल । नलिन = कमल । पात= पत्र, दल । सूधे = सीधे । साधु = सज्जन । सुद्ध = पवित्र । किरात - भील, दुर्जन। भावार्थ-( श्रीकृष्ण के मन की शुद्धता और राधिका के नेत्रों को अस्पृ- श्यता का वर्णन है ) श्रीकृष्ण का मन तो कमल की तरह कोमल और स्वच्छ है, पर ये तेरे नेत्र तीक्ष्ण, चंचल, मलिन और नए नीले कमल के पत्र के ऐसे है । वे (श्रीकृष्ण मन से) तो सोधे, सज्जन और पवित्र हैं और ये कुटिल, मर्म (चित्त) को चुरानेवाले एवम् निरे किरात (अत्यंत अपवित्र, दुष्ट ) हैं । पर जब वे इसे पकड़ लेंगे ( तेरे नेत्र उनके मन में फंस जाएँगे) तब तू इन्हें किसी प्रकार पा न सकेगी फिर वहां से निकलेंगे नहीं ) तू तो थोड़ा इठलाती है, पर ये तेरे ये नेत्र अधिक इठला रहे हैं । मैं न जाने कब से तुझे मना कर रही हूँ (पर मना करने पर भी) तेरे ये (कुटिल सिरचढ़े) नेत्र मेरे मोहन के मन को बार बार छू छू जाते हैं ( तूने नेत्र तो लगाना प्रारंभ कर दिया, पर ये लगने पर फिर वश में न रह जाएंगे। रामजनी को वचन कृष्ण सों, यथा-( सवैया ) (४३५) कौनहूँ तोष कहा भयो केसव कामिनि कोटिक सों हित ठाटें। रंच न साध सधै सुख की बिन राधिकै आधिक लोचन डाटें। क्यों खरी सीतल बास करै मुख जौ भखियै घनसार के साटें । लालच हाथ रहै ब्रजनाथ पै प्यास बुझाइ न ओस के चाटें ।२४॥ शब्दार्थ-तोष = तृप्ति । हित = प्रेम । ठार्ट = करने से । रंच-किचित् भी । साध = इच्छा । सधै पूरी हो । प्राधिक=आधे । डा = देखने से। खरी-खड़िया । धनसार=कपुर । साटें = बदले में । भावार्थ-क्या करोड़ों कामिनियों से प्रेम का ठाट ठटने से पापकी कोई २३-कमल-अमल । प्रसिद्ध-करम । मरम-परम । मरम-चोर-चितचोर इठलाति-इतराति । तो सों-तू हो। मनै-नैन । २४-रंचन-रंचक । सधै- सुषे । जो-जो रे भनी।