पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/२७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२८२ रसिकप्रिया शब्दार्थ-पानी तलवार । निधानी= कोश । सयान-चतुरता । सानी= युक्त । गौरा = पार्वती । गिरा=सरस्वती। भावार्थ-( नायक की उक्ति मानवती नायिका से ) हे मेरी रानी, तुम्हारी वह वाणी जो कपट के लिए मानी हुई कृपाण है, जो प्रेम के रस से लिपटी हुई है, जो प्राणों के लिए गंगाजी के पानी के समान शीतलता देने- वाली है, जो स्वार्थ का कोश है, जो परमार्थ ( मोक्ष ) की राजधानी है, जो काम की कथा के समान संसार में ( मधुर या अत्यंत प्रिय ) है, जो सुवर्ण से उलझी हुई हैं,अमृत से सुधारकर लाई गई है, जो सब प्रकार से चातुर्य से युक्त है, जो ज्ञानियों को सुख देनेवाली है. जिससे पार्वती और सरस्वती भी लज्जित हैं, जिसे सुनकर मुनि और मूढ़ जीव भी मुग्ध हो जाते हैं ऐसी वाणी को तुम विष कहती हो, शिव शिव ! (नायिका ने गान में कहा है कि मेरी बातें आपको विष सी लगती हैं, इसी पर नायक ने इतना बड़ा तूमार बांधा है)। (दोहा) (५२६) केसव करुना हास्य कहुँ, अग बीभत्स सिँगार । बरनत वीर भयानकहि, संतत बैर बिचार ।१२। भावार्थ 1-इन रसों में नित्य विरोध है-करुण और हास्य में, बीभत्स और श्रृंगार में, वीर और भयानक में । (५२७) भय उपजै बीभत्स तें, अरु सिँगार ते हास । केसव अद्भुत बीर तें, करुना कोप प्रकास ।१३। भावार्थ-रसोत्पत्ति का क्रम यों है-बीभत्स से भय की, शृंगार से हास्य की, वीर से अद्भुत की, क्रोध से करुण की उत्पत्ति होती है । (५२८) इहि बिधि केसवदास रस, अनरस कहे विचारि । वरनत भूल परी जहाँ, कबिकुल लेहु सुधारि ।१४! शब्दार्थ-भूल-चूक, भ्रम । (५२६) जैसे रसिक प्रिया बिना, देखिय दिन दिन दीन । त्यों ही भाषाकोब सबै, रसिकप्रिया बिन हीन |१५| (५३०) बाद रति मति अति परै, जानै सब रस रीत । स्वारथ परमारथ लहै, रसिकप्रिया की प्रीति ।१६। शब्दार्थ-अति परै - बढ़ती है, तीब्र होती है । इति श्रीमन्महाराजकुमारइंद्रजीतविरचितायां रसिकप्रियायां रसमनरसवर्णनं नाम षोडशः प्रभावः ।१६। ११-मानी-जानी। जानिय-प्रानिय। मानिये-जानिये । सुबरन- सतरनु । ज्ञानी-गानी । प्रानी-ग्यानी । विष कै-मुख तें, ऊख के। १२-कहु- कहि । बरनत-बरने । १४ -भूल-भूलि परो। १५-बिन- करि ।