पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/३७

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( ३७ ) प्रस्तुत किए गए। उसका परिणाम यह हुआ कि भाषा में वैसी कठिनाई नहीं है जैसी रामचंद्रचंद्रिका और विज्ञानगीता में दिखाई देती है। इन दोनों में भी जहाँ हिंदी के छंद प्रयुक्त हैं वहाँ वैसी दुरूहता नहीं है। अपवाद ही कहीं मिल सकता है। वस्तुतः केशव संस्कृत वर्णवृत्तों का हिंदी में प्रयोग करते समय हिंदी भाषा उसमें बैठा नहीं पाते थे। संस्कृत के वर्णवृत्तों का ढाँचा हिंदी के अनुकूल नहीं पड़ता। उसमें भाषा को बैठाने में शब्दों को आगे पीछे करना पड़ता है। हिंदी में शब्द आगे पीछे होने पर ठीक से अन्वित नहीं हो पाते । इसी से अर्थ कुछ का कुछ करना पड़ता है। एक उदाहरण लीजिए। रामचंद्रचंद्रिका में राम अपने भाइयों के साथ भोजन करने के अनंतर 'विशुद्ध गृह' में जा बैठे। इस पर केशव ने लिखा- बैठे बिसुद्ध गृह अग्रज अग्र जाई । देखी बसंत ऋतु सुंदर मोददाई । यह संस्कृत का हरिलीला छंद है। वसंततिलका का अंतिम वर्ण लघु कर देने से यह छंद बनता है। हिंदी के प्रसिद्ध कोश हिंदीशब्दसागर' में यह अंश 'अग्रज' शब्द के अर्थ में उद्धृत किया गया है। एक तो वहाँ 'जाई' और 'दाई' कर के इसे पूर्ण वसंततिलका ही बना दिया गया है, दूसरे 'अग्रज' शब्द का अर्थ 'श्रेष्ठ, उत्तम' किया गया है। केशव का अन्वय यह है-'अग्रज अग्न जाइ बिसुद्ध गृह बैठे' । बड़े भाई राम पहले या आगे जाकर विशुद्ध गृह में बैठे। पर 'शब्दसागर' ने 'अग्रज' और 'अन' को गृह से ही संबद्ध किया। 'गृह अग्रज' = गृह का बड़ा भाई, श्रेष्ठ गृह, उत्तम गृह । उसका अर्थ यह जान पड़ता है- ( राम ) उत्तम और विशुद्ध गृह के अग्रभाग में जा बैठे। यहाँ 'गृह' शब्द के पहले 'विशुद्ध' विशेषण पड़ा है। आगे फिर अन्य विशेषण अपेक्षित नहीं जान पड़ता। 'विशुद्ध अग्रज गृह' दो विशेषण व्यर्थ हैं। दो विशेषणों की अगाड़ी-पिछाड़ी कैमी-एक 'गृह' के पूर्व, दूसरी उसके उत्तर । संस्कृत वर्णवृत्त में शब्दों के ठीक से यथास्थान न बैठने के कारण ही ऐसी बाधा हुई है। संस्कृत में कहीं 'अग्रज' शब्द श्रेष्ठ या उत्तम अर्थ में प्रयुक्त नहीं है । तात्पर्य यह कि केशव की रचना को समझने में भी भ्रम होता आ रहा है । रसिकप्रिया की भाषा की प्रशंसा वे महाशय भी करते हैं जो इनकी भाषा के कटु आलोचक हैं। इसमें इन्होंने हिंदी काव्यप्रवाह के अनुरूप सशक्त, समर्थ, प्रांजल भाषा रखी है । सहसा इस प्रकार की भाषा केशव की रचना में और वह भी प्रारंभिक रचना में कैसे आ गई । इन्होंने सब प्रकार की भाषा में रचना करने का पर्याप्त अभ्यास किया होगा। 'रखनबावनी' की भाषा पुरानापन अधिक लिए हुए है। वह बतलाती है कि अपभ्रंशरूप हिंदी में पारंपरिक प्रवाह के कारण चलते रहे हैं। यह इनकी सबसे पहली रचना