पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/६४

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६४ रसिकप्रिया निर्वाह हो सके और जिसका कहीं किसी को कुछ पता भी न चल सके । (आपने मेरे प्रेम के कारण जो ) आसन, वस्त्र, सुगंध और गहने छोड़ दिए हैं, यहाँ तक तो किसी प्रकार बात बनी है पर आप जो मेरे ( खिलाए ) बिना पान नहीं खाते, हे कन्हैया यह आप मेरे साथ प्रीति कर रहे हैं या वैर ? क्योंकि सखियां मेरी खिल्ली उड़ाती हैं जिससे मुझे क्लेश होता है)। सूचना-इस सवैये में नायक के अनुकूलत्व वस्तु से लेशालंकार व्यंग्य है। (३३) अथ प्रकाश अनुकूल, यथा-( सवैया) केसव सूधे विलोचन सूधी बिलोकनि को अवलोके सदाई। सूधिय बात सुनें समुझे कहि आवति सूधिये बात सुहाई । सृधी सी हाँसी सुधा निधि सो मुख सोधि लई बसुधा की सुधाई । सधे सुभाइ सबै सजनी बस कैसे किये अति टेढ़े कन्हाई ॥ शब्दार्थ-विलोचन-( द्विलोचन ) दोनों नेत्र । बिलोकनि दृष्टि, नजर । सदाई-सदैव । सुधानिधि = चंद्रमा, श्लेप से सिधाई । सुधाई ) का भांडार, अत्यंत सीधा । सोधि लई = खोज कर एकत्र कर ली। बसुधा %3D पृथ्वी । सुधाई = सीधापन; अमृतत्व । भावार्थ -( सखी की उक्ति नायिका प्रति ! हे सखी, तेरे नेत्र सीधे हैं और तू सीधी नजर से सदा देखती भी है। तू सीधी ही बात सुनती-समझतो है और सदैव सीधी ही बात कहती भी है। तेरी हँसी भी सीधी है और तेरा मुख भी सुधाकर के समान है । तूने बसुधा का साग सुधात्व ( अमृतत्व और स धापन) ढूढ-ढूढ़कर एकत्र कर लिया है। इस प्रकार सब तरह के सीधे स्वभाव की होकर तूने अत्यंत टेढ़े श्रीकृष्ण को कैसे अपने वश में कर लिया ? अलंकार-श्रीकृष्ण जो सबसे टेढ़े रहते है वे नायिका के वश में हैं, यही अनुकूलता है। नायक को वश में कर लेने की बात सब लोग जान गए इससे 'प्रकाश अनुकूल' है। (३४) अन्यच्च (सवैया) मेरे तो नाहिन चंचल लोचन नाहिन केसव बानी सुधाई । जानौं न भूषन-भेद के भावनि भूलिहू मैं नहिं भौंह चढ़ाई । भोरेहूँ ना चितयो हरि ओर त्यों घेर करें इहिं भाँ ति लुगाई । रंचक तौ चतुराई न चित्तहि कान्ह भए बस काहे ते माई ।६। शब्दार्थ- बानी (वाणी)=बोली। सुधाई = अमृत की भांति, मीठी । ५-कों-सों। सुधानिधि सो-सुधाकर से। सुभाइ-स्वभाव । ६-नाहिन-नाहिन । बानी०-बानि सुहाई। भावनि०-भाव के मेदनि । मैं नहिं-ननहि; नैनन । चतुराई०-चतुराइ चित्त न । काहे०-कासु के ।