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पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/६५

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५ द्वितीय प्रभाव भूषन-भेद के भाव सोलहो शृंगार करके पति को रिझाना । भोरहूँ = भूलकर भी। पेरु = बदनामी । लुगाई = स्त्रियाँ । रंचक = किंचित, थोड़ी। माई - हे सखी ( स्त्रियों का संबोधन )। भावार्थ-(नायिका की उक्ति सखी प्रति) हे सखी, न तो मेरे नेत्र ही चंचल हैं और न मेरी वाणी ही मनोहर है । न तो मैं सोलहो शृंगार करके पति को रिझाने का ढंग ही जानती हूँ और न मैंने उन्हें रिझाने के लिए कभी भौंहें ही चढ़ाई हैं (तिरछी नजर की है)। इसी प्रकार मैंने भूलकर भी कृष्ण की ओर वैसे नही देखा जैसी ये स्त्रियां मेरी बदनामी कर रही हैं । मेरे चित्त में ( पति को वश में करनेवाली ) चतुरता भी किचिन्मात्र नहीं, पर न जाने श्रीकृष्ण मेरे वश में कैसे हो गए ! अलंकार :--प्रथम विभावना। सूचना-इस सवैये में 'भोरेहूँ ना चितयो' (भूलकर भी दृष्टिपात नहीं किया) को लेकर शंका की जाती है कि नायिका ने जब श्रीकृष्ण की ओर देखा ही नहीं तो उसमें स्वकीयत्व कहाँ रहा । पर 'त्यों' शब्द से नायिका का लक्ष्य 'रु' की अतिशयता की ओर है । इससे उक्त शंका का परिहार हो जाता है। (३५) अथ दक्षिण-लक्षण-(दोहा), पहिले सो हिय हेतु डर, सहज बड़ाई कानि । चित्त चलेहूँ ना चलै, दृच्छिन-लच्छन जानि । ७ । शब्दार्थ-पहिलो सो = पहले का सा ही। हेतु = प्रेम । सहज = स्वाभाविक । कानि = मर्यादा । भावार्थ-- दूसरी प्रेमिकाओं का प्रिय हो जाने पर भी जो पूर्व की प्रेमिका से पहले का सा ही प्रेम करे और डरता रहे, स्वभाव से ही जिसमें बड़प्पन की मर्यादा है और चित्त चलने पर भी जो अपने को सँभालता है, वह दक्षिण नायक है। (३६) अथ प्रच्छन्न दक्षिण, यथा-(कबित्त) हरि से हितू सों भ्रम भूलिहू न कीजै मान, हातो कियें हियहूँ तें होति हित हानिये । लोक में अलोक आनि नीकेहूँ को लागतु है, सीताजू को दूत-गीत कैसे उर आनियै । आँ खिनि जो देखियति सोई साँची केसवदास, काननि की सुनी साँची कबहूँ न मानिये । ७-पहिलो सो-पहिली सों। बड़ाई-बढ़ाई । ८-भ्रम-भ्रमि । मान- मन । किये-करि । नीकेहूँ-नीके हो; नीकहू । को लागतु-लगावत । गीत- गीता । केसोदास-केसौराइ । को न-कहा।