पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/६६

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रसिकप्रिया गोकुल की कुलटा ये यौँ ही उलटावति हैं, आजु लौ तौ वैसेई हैं कालि की न जानिये ।। शब्दार्थ-हातो किये = दूर करने से। अलोक = निंदा, कलंक । नीकेहूँ = भले को भी । गीत = कथित वृत्तांत । दूत-गीत = (बहुब्रीहि) दूत का कहा (धोबी ने सीताजी पर अपयश लगाया था जिसे 'दुमुख' नामक दूत ने राम को सुनाया था )। कैसे उर पानिय = कैसे विश्वास किया जाय । कुलटा = व्यभिचारिणी । उलटावति हैं = उलटा-पलटा करती रहती हैं, कुछ का कुछ कह देती हैं। भावार्थ-- (अंतरंग सखी की उक्ति नायिका से) तू श्रीकृष्ण सरीखे प्रेमी के संबंध में भ्रम भूलकर भी मत कर । यदि तू उन्हें अपने हृदय से दूर करती है तो भी प्रेम की हानि होती है। संसार में लोग भले को भी अपयश लगा देते हैं। भला दूत ने सीताजी के संबंध में जो (कलंकवाली धोवी की) बात कही थी उस पर कैसे विश्वास किया जा सकता है ? जो आँखों से देखी जाय उसी को सत्य मानना चाहिए । कान से सुनी (बात) को कभी सत्य न समझना चाहिए। ये गोकुल की कुलटाएँ इसी प्रकार बातें पलट दिया करती हैं। आज तक तो कृष्ण पूर्ववत् ही (निरपराध) हैं, कल की कौन (राम) जाने । अलंकार-काव्यलिंग, दृष्टांत । (३७) अथ प्रकाश दक्षिण, यथा-( सवैया ) चित चोप चितैबे की तैसियै है अरु तैसियै भाँति डरात घने । अरु तैसेई कोमल बोल गुपाल के मोहत हैं तिहिं भाँति मनै । गुन तैसेई, हास-बिलास सबै हुते तैसेई केसव कौन गनै । सखि तू कहै आन बधू के अधीन हैं सो परतीक किधौं सपनै । । । शब्दार्थ-योष = चाव, इच्छा । धनै - अत्यंत । मन- मन को। हुते = थे। आन = ( अन्य ) दूसरी । बधू = स्त्री। परतीक = ( प्रत्यक् ) प्रत्यक्ष, वास्तव में । सपने = स्वप्न अर्थात् झूठ । भावार्थ-(नायिका की उक्ति बहिरंग सखी से ) हे सखी, श्रीकृष्ण में पहले ही जैसा मुझे देखने का चित्त में चाव है और वैसे ही वे मुझसे अब भी अत्यंत डरा करते हैं। उनकी वाणी भी वैसी ही (पूर्ववत्) कोमल है और वे वैसे ही मेरे मन को मोहते भी हैं। उनमें वैसे ही गुण अब भी हैं और वैसे ही (पहले के से) सब हास-विलास भी वर्तमान हैं। इन सब (बातों) को कौन गिनाए। इसलिए तू जो यह कह रही है कि वे अब दूसरी स्त्री के वश में हो गए हैं, यह प्रत्यक्ष सत्य है अथवा स्वप्न (झट) है। ( गुझे विश्वास -परतीक-परतीत । ,