पृष्ठ:रसिकप्रिया.djvu/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६८ रसिकप्रिया यान- अथ प्रकाश शठ, यथा-( कबित्त ) (४१) काननि के रंगे रंग नैननि के डोलौ संग, नासा-अंग रसना के रसहीं समाने हौ। और गूढ़ कहा कहौं मूढ़ हो जू ? जानि जाहु, प्रौढ़िरूढ़ केसवदास नीके करि जाने हो। तन आन, मन आन, कपट-निधान कान्ह, साँची कहौ मेरी श्रान काहे कौं डराने हौ। वे तो हैं विकानी हाथ मेरें, हौं तिहारे हाथ, तुम ब्रजनाथ हाथ कौन के बिकाने हौ ? ।१३। शब्दार्थ-काननि के रँगे रंग -- कानों के रंग में रंगे हुए हो अर्थात् जिसकी प्रशंसा अपने कानों से सुनते हो उसी को देखने के लिए उतावले हो जाते हो । नासा-अंग = नासिका के अंग में : नासा० = नासिका के अंग में या रसना के रस में ही डवे रहते हो । नासिका जिस नायिका की गंध की ओर खींचती है उधर को जाते हो। जीभ जो कहने को कहती है वही कहते हो । गूढ़ = भेद की बात । प्रौढि==ढिठाई । रूढ=विचार में दृढ़ । नीकें करि = भली भाँति । प्रान-(अन्य) दूसरी बात । निधानखजाना । सौगंध, कसम । हौं = मैं। भावार्थ- ( बहिरंग सखी की उक्ति नायक से) तुम कानों के रंग में रंगे हुए हो ( कौन से जिसकी प्रशंसा सुन पाते हो उसी को देखने के लिए उत्सुक हो जाते हो) । तुम अपने नेत्रों के संग-संग घूमते फिरते हो ( नेत्र जिसके रूप पर मुग्ध होते है, उसे देखने के लिए नेत्रों के इशारे पर घूमते रहते हो ) । यही नहीं, नासिका जिस गंध की ओर ले जाती है उधर ही जाते हो, जीभ जो कहलाती है वही कहते हो (नाक में जिस किसी की सुगंध पहुंचती है, वाणी द्वारा उसी से बात करने के लिए उत्कंठित हो उठते हो)। अधिक गूढ़ बातें और क्या कहूँ तुम नादान तो हो नहीं ( कि समझाने की श्रावश्यकता पड़े, बस इतने से ही ) समझ लो कि तुम ढिठाई के रंग-ढंग में निपुण हो और इसे लोग भली भांति जानते भी हैं। तुम्हारे शरीर (मुख) में कुछ और मन में कुछ (और बात) रहा करती है । कृष्ण, तुम बड़े कपटी हो। तुमको मेरी सौगंध है, सच बतानो तुम क्यों डर रहे हो ? वे (नायिका) तो मेरे हाथ बिकी हैं (मेरे वश में हैं) और मैं तुम्हारे हाथ बिकी हूँ (तुम्हारे इच्छानुकूल कार्य करने को तत्पर रहती हूँ)। पर यह तो बताओ कि हे १३-काननि 10- कान रंग रंगे नैन तिनही के डोलें संग। सयाने सों साने । प्रौढिरूढ़-प्रौढ़ि रूढ़ि ।