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रस-मीमांसा



पर क्या हम कह सकते हैं कि आदिकवि महर्षि वाल्मीकि के महावाक्य का इतना ही परिमित उद्देश्य था ? क्या पाठक या श्रोता के हृदय में वे और किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं चाहते थे ? क्या उनके क्रोध, शोक और जुगुप्सा के आलंबन-उद्दीपन मनुष्य मात्र के क्रोध, शोक और जुगुप्सा के विषय नहीं है ? क्या रावण पर क्रोध प्रकट करते हुए राम के मुख से निकले हुए शब्द हमारे हृदय से निकले हुए नहीं प्रतीत होते ? रावण और उसके कर्म ऐसे हैं जिन पर मनुष्य-जाति क्रोध करने के लिये विवश है। यह क्रोध भारतीय जनता में ऐसा स्थायी हो गया है। कि रामलीला में कभी कभी कागज के बने रावण को लड़के युद्ध के पहले ही पत्थरों से मार मारकर गिरा देते हैं। इसका नाम है साधारणीकरण । विशेष का चित्रण करने में भी ‘भाव' के विषय के सामान्यत्व की ओर जब कवि की दृष्टि रहेगी तभी यह ‘साधारणीकरण 'हो सकता है। पर यह सजीव सृष्टिमात्र के हृदय ने अपने हृदय में रखनेवाले स्वतंत्र कवियों में ही पाया जायगा । जिनका उद्देश्य राजाओं को प्रसन्न मात्र करना होगा वे ऐसे व्यापक लक्ष्य का निर्वाह नहीं कर सकते ।

कवि को अपने कार्य में अंतःकरण की तीन वृत्तियों से काम लेना पड़ता है—कल्पना, वासना और बुद्धि । इनमें से बुद्धि का स्थान बहुत गौण हैं। कल्पना और वासनात्मक अनुभूति ही प्रधान हैं। बुद्धि की सहायता तो काव्य के बाह्य रूप में पड़ती है। वासना की सहकारिणी होकर जब कल्पना काम करती हैं। तभी वह काव्योचित कल्पना होती है। वासना-कल्पना के सहयोग से भावों के विषय भी प्रत्यक्ष किए जाते हैं और भाव भी व्यक्त किए जाते हैं। सच्चे काव्य में प्रत्यक्षीकरण के लिये इन