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रस-मीमांसा

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14 रस-मीमांसा लोगों की आँखों से ओझल हो गया। यहाँ तक कि नारायण पंडित को सर्वत्र अद्भुत रस ही दिखाई देने लगा और उन्होंने कह दिया किं रसे सारश्चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते । तमस्कारसारखे सर्वश्राप्यनुतो रसः ।। काव्य में असाधारणत्व काव्य में असाधारणत्व वहीं अपेक्षित होता है जहाँ भावों का अत्यंत उत्कर्ष दिखाना होता है। इस उत्कर्ष के लिये कहीं कहीं असाधारणत्व पहले विभाव में प्रदर्शित होकर भाव ( स्थायी ) के उत्कर्ष का कारण-स्वरूप झेता है। जैसे, श्रृंगार के आलंबन के अत्यंत सौंदर्य, करुण के आलंबन के अत्यंत दुःख, रौद्र के आर्जबन के अतिशय अत्याचार, वीर के आलंबन की अतिशय दुःसाध्यता इत्यादि द्वारा आश्रय के भावों के उत्कर्ष के लिये हेतु प्रस्तुत किया जाता है। पर आगे चलकर दिखाया जायगा कि भावों के उत्कर्ष के लिये भी सर्वत्र आलंबन का असाधारणत्व अपेक्षित नहीं होता। साधारण से साधारण वस्तु हमारे गंभीर में गंभीर भावों का आलंबन हो सकती हैं। साहचर्यजन्य प्रेम कितना बलवान् होता है, उसमें प्रवृत्तियों को लीन करने की कितनी शक्ति होती है सब लोग जानते हैं, पर वह असाधारणव पर अवलंबित नहीं होता। जिनका हमारा लड़कपन में साथ रहा है, जिन पेड़ों के नीचे, जिन टीलों पर, ज़िन नदीनालों के किनारे हम अपने साथियों को लेकर बैठा करते थे उनके प्रति हमारा प्रेम जीवन भर स्थायी होकर बना रहता है। अतः चमत्कारवादियों की यह समझ ठीक नहीं कि जद्द असाधारणत्व होता है वहीं इसका परिपाक होता है अन्यत्र नहीं ।