पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१२२

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विभाव एक में केवल दो मूर्तियों के अतिरिक्त और कुछ नहीं है और दुसरे में पयस्विनी के द्रुम-लताच्छादित तट पर पर्ण-कुटी के सामने दोनों भाई बैठे हैं। इनमें से दूसरा चित्र परिस्थिति को लिए हुए हैं, इससे उसमें हमारे भावों के लिये अधिक विस्तृत आलंबन है। हमारी परिस्थिति हमारे जीवन का आलंबन है, अतः उपचार से वह हमारे भावों का भी आलंबन है। उसी परिस्थिति में उस संसार में उन्हीं दृश्यों के बीच जिनमें हम रहते हैं, राम-लक्ष्मण को पाकर इम उनके साथ तादात्म्य-संबंध का अधिक अनुभव करते हैं, जिससे ‘साधारणीकरण' पूरा पूरा होता है। | पर प्राकृतिक वर्णन केवल अंग-रूप से ही हमारे भावों के आलंबन नहीं हैं, स्वतंत्र रूप में भी हैं। जिन प्राकृतिक दृश्यों के बीच हमारे आदिम पूर्वज रहे और अब भी मनुष्यजाति का अधिकांश ( जो नगरों में नहीं आ गया है ) अपनी आयु व्यतीत करता है, उनके प्रति प्रेम-भाव पृर्व-साहचर्य के प्रभाव से संस्कार या वासना के रूप में हमारे अंतःकरण में निहित हैं। उनके दर्शन या काव्य आदि में प्रदर्शन से हमारी भीतरी प्रकृति का जो अनुरंजन होता है वह अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। इस अनुरंजन को केवल किसी दूसरे भाव का आश्रित या उत्तेजक कहना अपनी जड़ता का ढिंढोरा पीटना है। जो प्राकृतिक दृश्यों को केवल कामोद्दीपन की सामग्री समझते हैं उनकी रुचि भ्रष्ट हो गई है और संस्कार-सापेक्ष हैं। मैंने पहाड़ों पर या जंगलों में घूमते समय बहुत से ऐसे साधु देखे हैं जो लहराते हुए हरे भरे जंगलों, स्वच्छ शिलाओं पर चाँदी से ढलते हुए झरनों, चौकड़ी भरते हुए हिरन और जल को झुककर चूमती हुई डालियों पर कलरव कर रहे विइंगों को देख मुग्ध हो गए हैं।काने मेघ जब - -