पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१५२

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विभाव देखनी हो तो सूदन का ‘सुजानचरित्र' पढिए; हाथी-घोड़ों, सवारियों और राजसी ठाट-बाट की वस्तुओं के नाम याद करने हों तो महाराज रघुराजसिंह का राम-स्वयंवर' उठा लीजिए। | केशवदासजी को अपने श्लेष, यमक और उत्प्रेक्षा इत्यादि से फुरसत कहाँ कि विस्तृत संबंध-योजना के साथ प्रकृति का निरीक्षण करने जायें। सीधी तरह से कुछ वस्तुओं का नाम ले जायें, यही गनीमत है फल-फूलन पूरे, तश्वर रूरे, कोकिल-कुल कलरव बोलें ; अति मत्त मयूरी, पियरस-पूरी, बन-बन प्रति नाचति डोले । देखिए दुडंक वन के वर्णन में श्लेष का यह चमत्कार दिखाकर आप चलते हुए । सोभत दंडक की बचि बनी, भाँतिन भाँतिन सुंदर घनी । सेव बड़े नृप की अनु लसे, श्रीफल भूरि भाव जहँ बसे ।। बेर भयानक सी अति लगै, अर्क-समूह जहाँ जगमगै । वेर’, ‘बनी', 'श्री-फल’ और ‘अर्क' शब्दों में लेप की कारीगरी दिखा दी, घस हो गया। बनस्थली के प्रति उनका अनुराग तो था नहीं कि उसके रूप की छटा व्योरे के साथ दिखाते । ‘भयानक शब्द जो रखा हुआ है वह 'भाव' का सूचक नहीं है; क्योंकि न तो 'वर' ही कोई भयंकर वस्तु है, न आक ( मदार ) ही। श्लेष से अर्क' का अर्थ सूर्य लेने से ‘समूह' के कारण प्रलय-काल का अर्थ निकलता है, जो प्रस्तुत नहीं है। दंडक वन क्या दे देता-आनंद दे सकता था, वह भी नहीं देता था जो उसके रूप का विश्लेषण केशवदासजी करने जाते ? राजा की सेवा से 'श्री-फल प्राप्त होता था, उसका जिक्र मौजूद है।