पृष्ठ:रस मीमांसा.pdf/१६४

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विभाव १४१ जाया करे जहाँ स्वार्थ की पहुँच न हो, तब जाकर सच्ची आत्मा- भिव्यक्ति होगी। नए अर्थवादी ‘पुराने गीतों को छोड़ने को लाख कहा करें, पर जो विशाल-हृदय हैं वे भूत को बिना आत्मभूत किए नहीं रह सकते। अतीत-काल की वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति जो हमारा रागात्मक भाव होता है वह प्राप्त:काल की वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति हमारे भावों को तीव्र भी करता है और उनको ठीक ठीक अचस्थान भी करता है। वर्षा के आरंभ में जब हम बाहर मैदान में निकल पड़ते हैं, जहाँ जुते हुए खेतों की सोधी महक आती है और किसानों की स्त्रियाँ टोकरी लिए इधर उधर दिखाई देती हैं, उस समय कालिदास की लेखनी से अंकित त्वय्यायन्तं कृषिफलमिति ध्रुविकारानभिज्ञः प्रीतिस्निग्धैर्जनपद्वधूलोचनैः पीयमानः । सद्यः सरोकषासुरभिक्षेत्रमाह्य मालं किचित्पश्चान्नज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण ॥ इल दृश्य के प्रभाव से-हमारा भाव और भी तीन हो जाता है-हमें बह दृश्य और भी मनोहर लगने लगता हैं। जिन वस्तुओं और व्यापारों के प्रति हमारे प्राचीन पूर्वज्ञ अपने ‘भाव अंकित कर गए हैं। उनके सामने अपने को पाकर मानों हम उन पूर्वपुरुषों के निकट जा पहुँचते हैं, और उसी प्रकार के भावों का अनुभव कर उनके हृदय से अपना हृदय मिलाते हुए उनके सगे बन जाते हैं। वर्तमान सभ्यता ने जहाँ अपना दल नहीं जमाया है उन जंगलो, पहाड़ों, गाँव और मैदानों में हम अपने को वाल्मीकि, कालिदास या भवभूति के समय में खड़ा कल्पित कर सकते हैं ; कोई बाधक दृश्य सामने नहीं आता । पर्वतों की दरी-कंदराओं में, प्रभात के प्रफुल्ल पद्म-