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रस-मीमांसा

रस-मीमांसा | अब अपने यहाँ माने हुए साहित्य के भावों का विवेचन करना चाहिए। हमारे यहाँ रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, आश्चर्य, जुगुप्सा और निर्वेद ये नौ भाव गिनाए गए हैं। ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से हास, उत्साह और निर्वेद को छोड़ शेष सब भाव वे ही हैं जिन्हें आधुनिक मनो- विज्ञानियों ने मूल भाव कहा है। निर्वेद को अभाव-रूप मानकर अभी विवेचन के बाहर रखता हूँ। शेष आठ का ही विचार किया जाता है। ये सबके सब स्थायी भाव' कहलाते हैं। ‘स्थायी' शब्द से आचार्यों का क्या अभिप्राय है यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । स्थायित्व के दो अर्थ हो सकते हैं- (१) किसी एक भाव की एक ही अवसर पर इस आधि- पत्य के साथ बनी रह्ना कि उसके उपस्थिति-काज़ में अन्य भाव अथवा मनोवेग उसके शासन के भीतर प्रकट हों और वह ज्यों का त्यों बना रहे। (२) किसी मानसिक स्थिति का इतने दिनों तक बना रहना कि उसके कारण भिन्न भिन्न अवसरों पर भिन्न भिन्न भाव प्रकट होते रहें। । कहने की आवश्यकता नहीं कि आचार्यों का अभिप्राय प्रथम प्रकार के स्थायित्व से है क्योंकि ‘रति’ ही एक ऐसा स्थायी है जिसमें द्वितीय प्रकार का दीर्घकाल-व्यापी स्थायित्व घटित होता है, शेष में प्रथम प्रकार का स्थायित्व ही पाया जाता है। अतः आठ भावों में से रति भाव ही ऐसा है जो आधुनिक मनो- विज्ञान की दृष्टि से भी स्थायी है। जान पड़ता है कि भोज आदि कुछ साहित्य-मीमांसकों का ध्यान रति के इस स्थायित्व की ओर गया था। उन्हें कुछ इस प्रकार भासित हुआ होगा कि । [ देखिए 'शृंगारप्रकाश' ।]